किसान नवाचार: जलवायु परिवर्तन से लड़ने का स्थाई समाधान

Updated on March 1, 2020

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने तथा अनुकूलन स्थापित करने के लिए केरल के पहाड़ी इलाकों के किसान नवाचार के अभ्यासों एवं गतिविधियों को अपना रहे हैं। नवाचारों को अपनाकर ये किसान स्थाई समाधान विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।


लहरदार स्थलाकृति के साथ आधे क्षेत्र पर सरकारी संरक्षित वन क्षेत्र केरल के पहाड़ी इलाकों की विशेषता हैं। इन क्षेत्रों के अधिकांश गांव सुदूर स्थित हैं और मूलभूत बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। औपचारिक क्षेत्रों द्वारा इन गांवों के विशिष्ट स्थानीय आवश्यकताओं की उपेक्षा की जाती है। सीमित बाजार हैं और इन क्षेत्रों तक पहुंच सुनिश्चित करने हेतु तकनीकियों एवं उत्पादों को विकसित करने में निजी क्षेत्रों को भी कोई रूचि नहीं है। किसानों के लिए, जीवित रहने और सीमित स्थानीय संसाधनों का विस्तार करने हेतु स्वयं के समाधानों एवं नवाचारों को विकसित करना ही एकमात्र विकल्प है।

पीअरमेड डेवलपमेण्ट सोसायटी ;पीडीएसद्ध केरल, भारत में स्थित एक गैर सरकारी संगठन है, जो केरल के पहाड़ी इलाकों के विशेषकर आदिवासी समूहों, सीमान्त किसानों और पलायन करने वाले समुदायों के लिए काम करती है। पीडीएस पिछले 18 वर्षों से किसानों के नवाचार के क्षेत्र में काम कर रही है। इसने केरल के उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों से 1000 से भी अधिक नवाचारों को चिन्हित एवं दस्तावेजित किया है। इनमें पौध की प्रजातियां, कृषिगत खेती के तरीके, कृषि के उपाय, मृृदा एवं जल प्रबन्धन, कीट एवं व्याधि प्रबन्धन, कटाई, कटाई के बाद प्रसंस्करण आदि से सम्बन्धित नवाचार शामिल हैं।

दस्तावेजित नवाचारों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने हेतु किसानों एवं परम्परागत समुदायों द्वारा विशिष्ट नवाचारों एवं शमन की विशिष्ट गतिविधियों को भी शामिल किया गया है। स्थान विशेष की फसल प्रजातियों का चिन्हीकरण व चयन, सूखा सहनशील अनुपयोगी फसलों का पुनर्जीवन, फसल विविधीकरण एवं अन्तर फसल आदि कुछ ऐसे नवाचार हैं, जिनका उपयोग जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु किसानों द्वारा किया गया। यहां पर इन्हीं नवाचारों के बारे में विस्तार से बताया जा रहा है।

स्थान विशेष के किसानों का चयन एवं प्रचार-प्रसार
केरल के उंचे स्थानों, विशेषकर इडुक्की जिले के किसान काली मिर्च, इलायची, काफी, रबर, चाय, कसावा एवं धान की खेती प्रमुख तौर पर करते हैं। इडुक्की के पहाड़ी रास्ते समुद्र तल से 800 से 2400 मीटर की उंचाई पर स्थित हैं। यह भी दर्ज किया गया है कि भिन्न-भिन्न उंचाईयों के भिन्न-भिन्न स्तरों पर यही प्रजातियां उगाई जाती हैं।

जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में इलायची सर्वाधिक संवेदनशील फसल है। यह देखा गया कि तापमान, बारिश एवं सापेक्ष आर्द्रता में न्यूनतम बदलाव एवं उतार-चढ़ाव के कारण इलायची के विकास एवं उत्पादन में गिरावट आयी है।

किसानों द्वारा चिन्हित, चयनित एवं प्रचारित-प्रसारित विशिष्ट उंचाईयों के लिए अनुकूलित इलायची की कई खेती को हमने दस्तावेजित किया ;देखें बाक्स 1द्ध। ये प्रजातियां विशिष्ट जलवायुविक परिस्थितियों जैसे- कुहरा, आर्द्रता, वर्षापात, उंचाई एवं तापमान के लिए अनुकूलित हैं। गहन निरीक्षण में स्पष्ट हुआ कि इलायची की खेती करने वाले अधिकांश नवोन्वेषी किसानों द्वारा स्थानीय उपयुक्त प्रजाति की पहचान के लिए स्थानीय परिस्थिति विशिष्ट उपयुक्त खेती की पहचान एवं इसके प्रचार-प्रसार हेतु प्राकृतिक चयन प्रक्रिया पद्धति अपनाई गयी। मौजूदा परिस्थितियों में उत्पादन, बाजार में स्वीकार्यता, व्याधि एवं सूखा सहनशील तथा जल ग्रहण के मापदण्डों को किसानों ने प्राकृतिक चयन के लिए अपनाया।

 

तालिका 1: किसानों द्वारा विकसित विभिन्न स्थानों के लिए उचित इलायची की स्थानीय खेती

थीरूथाली: समुद्र मध्य तल से 1100मीटर-1200मीटर उंचाई पर स्थित स्थानों में कुहरा की परिस्थितियों के लिए उचित
पनीकुलांगरा: समुद्र मध्य तल से 1400-2000 मीटर की उच्च उंचाई के लिए अनुकूलित
इल्लाराजन: समुद्र मध्य तल से 900-1200 मीटर के लिए अनुकूलित
वंडर: कम उंचाई ;900 मीटर से 1000 मीटरद्ध के लिए अनुकूलित
नजाल्लानी: समुद्र मध्य तल से 1100-1200 मीटर के लिए अनुकूलित
कान्नेइलम: मैदान के लिए उपयुक्त

 

 

काली मिर्च का मूल स्थान पश्चिमी घाट हैं और इन क्षेत्रों में इसकी आनुवंशिक विभिन्नता व्यापक रूप से दर्ज की गयी। काली मिर्च भी जलवायुविक परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील होती है। हम किसानों द्वारा विकसित या प्रचारित काली मिर्च की पांच भिन्न-भिन्न खेती की पहचान करने में सक्षम हुए, जो केरल की विशिष्ट जलवायुविक एवं मृदा परिस्थितियों के लिए उपयुक्त हैं। नवोन्वेषी किसान के टी वर्गीश ने निरीक्षण किया कि नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में सूखा एवं त्वरित विल्ट ;फाइतोफथोरा के भयानक कवक के आक्रमणद्ध के कारण उनके द्वारा बोयी गयी काली मिर्च की हाइब्रिड प्रजाति वाइन अधिकांशतः नष्ट हो गयी। एक विशेष पौधा रोग के प्रकोप से अप्रभावित रह गया था। उन्होंने देखा कि उसमें सूखा और रोग प्रतिरोधी गुण थे और बाद में उन्होंने इसे प्रचारित किया। स्पाइसेज बोर्ड और नेशनल इन्नोवेशन फाउण्डेशन ने सूखा और रोग प्रतिरोधक गुणों के लिए इस प्रजाति को संस्तुति दे दी है।

परम्परागत और स्थानीय फसलों को पुनर्जीवित करना
सरकारी संरक्षित वनक्षेत्र में रहने वाले उराली आदिवासी समुदायों द्वारा सूखा और रोग प्रतिरोधी लोबिया प्रजातियों को पुनर्जीवित करने व प्रचारित करने का प्रयास करना, किसानों द्वारा किये जाने वाले प्रयोगों का एक दूसरा सफल उदाहरण है। उराली आदिवासी समूहों द्वारा खेती की जाने वाली लोबिया की स्थानीय प्रजातियां अपने पोषण गुणों, कम प्रबन्धन, ताकत और चरम परिस्थितियों के प्रति सहनशीलता के लिए जानी जाती हैं। बाजार में मटर की अन्य सामान्य प्रजातियों का तांता लगा रहने के कारण, समुदाय के अधिकांश लोगों ने इन प्रजातियों के गुणों को अनदेखा व उपेक्षित कर दिया था। तथापि, उराली आदिवासी समुदाय की कुछ महिला किसानों ने लोबिया की इन प्रजातियों को संरक्षित एवं प्रबन्धित किया था। मटर की हाइब्रिड प्रजातियों के असफल होने के कारण, उराली समुदाय एवं आस-पास के गांवों की अधिक से अधिक महिलाओं ने स्थानीय लोबिया की खेती करने में बेहद रूचि दिखाई। लोबिया के बीजों के संरक्षण की परम्परागत प्रणाली भी काफी रूचिकर है।

हमने यह भी पाया कि बहुत से किसान, जो पहले व्यापारिक दृष्टिकोण से कसावा की हाईब्रिड प्रजातियों की खेती करते थे, अब वे अपने खेत पर कसावा की विभिन्न प्रजातियों की खेती कर रहे हैं। सामान्यतया, हाइब्रिड प्रजातियांे से 4-5 किग्रा0 का उत्पादन होता है, जबकि स्थानीय प्रजातियां 10-12 माह में उपज देती हैं। लेकिन बदलती जलवायुविक परिस्थितियों में, हाइब्रिड प्रजातियों की उपज में उल्लेखनीय कमी आयी है। नतीजतन ये किसान कम पानी चाहने वाली तथा उच्च उत्पादकता देने वाली पारम्परिक प्रजातियों को एकत्र किया है और उनकी खेती प्रारम्भ कर दी है। हाल के वर्षों में किसानों द्वारा विकसित कसावा की एक प्रजाति अम्बक्कडम किसानों की पसंदीदा प्रजातियों में से एक है।

फसल विविधता
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने हेतु किसानों द्वारा फसल विविधता की रणनीति अपनाई गयी। इडुक्की जिले के दूरस्थ गांव कुम्बुमीटू से एक ऐसा ही रूचिकर मामला सामने आया, जहां काफी और धान मुख्य फसल है। यद्यपि इडुक्की जिले की औसत वार्षिक वर्षा 3265 मिमी0 है, फिर भी 1995 से 2003 के बीच इस क्षेत्र विशेष ने भयंकर सूखे का सामना किया है। मानसून की निरन्तर कमी विफलता ने यहां के किसानों को नई फसलों पर प्रयोग करने हेतु विवश किया। उन्होंने गेंहू, रागी, अरवी एवं सब्ज़ियों की खेती करना प्रारम्भ कर दिया। 2005 से, इस क्षेत्र में समय से एवं अच्छा मानसून होने के कारण वे उम्मीद से अधिक वर्षा प्राप्त कर रहे हैं। इस बदलाव ने किसानों को अन्य फसलों जैसे- इलायची और काली मिर्च लगाने हेतु प्रोत्साहित किया। वर्तमान में, वे इलायची और पीपर के साथ गोभी, गाजर, अरवी एवं अमोेर्फोफाल्लुस जैसी सब्ज़ियों की खेती कर रहे हैं। ये अनुकूलन बदलती जलवायुविक परिस्थितियों से अनुकूलन स्थापित करने हेतु किसानों की अनुकूलन एवं प्रायोगिक क्षमता को दर्शाते हैं।

अन्तरफसली खेती
रबर के उत्पादन में कमी आने के पीछे तापमान का बढ़ना एक प्रमुख कारण है। घटते उत्पादन की समस्या से निपटने हेतु किसानों ने विभिन्न फसलों को रबर के साथ अन्तरफसल के तौर पर लगाया। रबर के पौधरोपण के साथ अरारोट की खेती सर्वाधिक उपयुक्त है। बाजार में प्रसंस्कृत अरारोट पाउडर की भारी मांग है। हालांकि प्रसंस्कृत अरारोट का बाजार मूल्य काफी अधिक है, लेकिन प्रसंस्करण में कठिनाई के चलते किसान इसकी खेती के प्रति अनिच्छुक हैं। अरारोट को हाथ से प्रसंस्कृत करने में काफी समय लगता है और बहुत श्रमसाध्य होता है। एक नवोन्वेषी किसान ए टी थॉमस ने अरारोट को पीसने हेतु एक मशीन विकसित कर अरारोट के प्रसंस्करण को काफी आसान बनाया है, जिसमें श्रम भी कम लगता है। अरारोट का पाउडर बनाने वाली मशीन की उपलब्धता होने से बहुत से किसानों ने व्यवसायिक तौर पर अरारोट की खेती करना प्रारम्भ कर दिया है।

रबर के साथ खेती की जा सकने वाली काफी की उपयुक्त प्रजाति की पहचान करना किसानों द्वारा किया जाने वाला एक दूसरा नवाचार है। केरल के उच्च क्षेत्रों में रहने वाले बहुत से किसानों ने काली मिर्च एवं इलायची की अन्तरफसली खेती को भी करने का प्रयास किया है।

अन्तर्दृष्टि एवं सुझाव
किसानों के नवाचारों को दस्तावेजित करने की प्रक्रिया के दौरान हमने कुछ सीख भी प्राप्त की और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई लड़ने हेतु एक उपकरण के तौर पर किसानों को नवाचारों को प्रोत्साहित करने हेतु कुछ सुझाव भी हैं, जो निम्नवत् हैं –

अ) किसानों के नवाचारों, दृष्टिकोण एवं जीवित रहने की रणनीति को दस्तावेजित करने, अध्ययन करने, पूरक करने, प्रचारित करने और मान्यता देने की जरूरत है।

ब) जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में स्थानीय और किसान विकसित प्रजातियों का विशेष महत्व है। किसान और विकसित फसलों के लिए बाजार मूल्य और मूल्य सवंर्धित उत्पादों को विकसित करने से मुख्य धारा के समुदायों में इन फसलों के प्रसार एवं स्वीकार्यता दिलाने में सहायता मिलेगी। यह देखा गया है कि अधिकांश किसानों के उन्हीं नवाचारों को दस्तावेजित किया जाता है, जिनका व्यापारिक मूल्य है। व्यापारिक, ब्राण्ड और बाजार मूल्य तैयार करना किसानों को और अधिक प्रयोग करने हेतु प्रोत्साहित करेगा।

स) सूखा एवं रोग प्रतिरोधी प्रजातियों को विकसित करने के लिए किसानों के साथ मिलकर स्थानीय प्रजातियों के साथ क्रास ब्रीडिंग कर पौधों प्रजातियों के सुधार की व्यापक गंुजाइश है।

द) नवाचारों का प्रयोग करने और उनके नवाचारों एवं पहलों के विस्तार हेतु किसानों को तकनीकी ज्ञान एवं जानकारी ;सलाहद्ध देने की आवश्यकता है।

यद्ध अविकसित और स्थानीय फसलों के लिए प्रसंस्करण तकनीकों और मूल्य सवंर्धित उत्पादों को विकसित करने की आवश्यकता है। हालांकि किसान पारम्परिक/एवं अविकसित फसलों की खेती करने के इच्छुक हैं, लेकिन उपयुक्त प्रसंस्करण तकनीकों की अनुपलब्धता एक प्रमुख बाधा है।

निष्कर्ष
ग्रामीण क्षेत्रों की मांग और आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न एवं स्थान विशेष पर आधारित होती हैं। सभी क्षेत्रों की आवश्यकताओं को पूरा करने का समाधान एक ही जैसा नहीं हो सकता है। किसानों विशेषकर नवोन्वेषी किसानों की सहभागिता एवं सक्रिय संलग्नता स्थायी समाधानों को विकसित करने की कुंजी है। किसानों द्वारा किये जा रहे सफल नवाचारों के दस्तावेजीकरण ने जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक समस्या से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

सन्दर्भ
के0 कान्दीन्नन, के0एस0 कृष्णामुर्थी, एस0जे, एन्के ग्वाडा एवं एम0 आनन्दराज द्वारा लिखित ‘‘जलवायु परिवर्तन और काली मिर्च का उत्पादन’’ सुपारी, मसालों एवं औषधीय पौधों का इण्डियन जर्नल, वाल्यूम 16 ;4द्ध, पेज 32-35।

एम0 मुरूगन, पी0के0 शेट्टी, ए0 अनन्धाई एवं आर0 रवि द्वारा लिखित प्रजेण्ट एण्ड फ्यूचर क्लामेट चेण्ज इन इण्डियन कारडोमाम हिल्स: इम्प्लीकेशन्स फार कारडोमाम प्रोडक्शन एण्ड सस्टेनेबिलिटी, 2012, ब्रिटिश जर्नल ऑफ एनवायरन्मेण्ट एण्ड क्लाइमेट चेण्ज, 2 ;4द्ध, पेज 368-390।

टी जे जेम्स एवं स्टेबिन के


टी जे जेम्स
सलाहकार
पीयरमोड डेवलपमेण्ट सोसायटी
पोस्ट- पीयरमोड, इडुक्की, केरल - 685531
ई-मेल:james.tj6@gmail.com


स्टेबिन के
समन्वयक
पीयरमोड डेवलपमेण्ट सोसायटी
पोस्ट- पीयरमोड, इडुक्की, केरल - 685531
वेबसाइट:www.pdspeermade.com

Source: Climate change & ecological approaches, LEISA  India, Vol.19, No. 2, June 2017

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