छोटे अनाजों का विकेंद्रीकृत प्रसंस्करण

Updated on September 2, 2024

 


भारत के तीन भौगोलिक क्षेत्रों में पोषण-जागरूक समुदाय द्वारा किये गये सहयोगात्मक प्रयासों ने मोटे अनाजों के पुनरूद्धार, खेती, प्रसंस्करण और उपभोग को बढ़ावा देने में मदद किया है।


मोटे अनाज वो छोटे अनाज हैं जो विश्व भर में वर्षा आधारित खेतों में उगते हैं। सामान्यतः ये एक गुच्छे वाले फसल के रूप में जाने जाते हैं जो विश्व के विभिन्न हिस्सों में बड़ी मात्रा में उत्पादित और खपत किए जाते थे। लगभग सभी देशों में पिछले कुछ दशकों में इनकी खेती और खपत में वृद्धि के बजाय स्पष्ट गिरावट देखी गई है, किन्तु भारत में मोटे अनाज खेती और खपत दोनों ही मामले में लोकप्रिय हो रहे हैं, क्योंकि लोग इसे अपने पौष्टिक आहार में शामिल करने लगंे हैं। हालांकि, बुआई के मामले में अल्प मात्रा में वृद्धि हुई है, तथापि नीति निर्माताओं और सार्वजनिक व्यक्तियों द्वारा इनकी खेती, प्रसंस्करण और खपत पर ध्यान दिया जा रहा है, जिसका मुख्य कारण इसकी खेती करने में आसान होती है और यह पोषण से भरपूर होता है।

आकारिकी की दृष्टि से मोटे अनाज दो प्रकार के हैं -’नेक्ड ग्रेन अर्थात् बिना छिलके वाला अनाज’ और ’हस्क्ड ग्रेन अर्थात् छिलके वाला अनाज’। बिना छिलके वाले अनाज में रागी, बाजरा और ज्वार शामिल हैं, जबकि छिलके वाले अनाज में कंगनी, कुटकी, कोदो, चेना, सांवा, और हरी कंगनी आदि शामिल हैं। ये सभी छोटे दाने वाले मोटे अनाज विभिन्न प्रकार के पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं और बहुधा प्रसंस्करण करते समय पोषक तत्वों के नष्ट होने का भय बना रहता है। अतः प्रसंस्करण कार्यों के दौरान यह प्रयास किया जाना चाहिए कि मोटे अनाजों की पोषकता भरपूर बनी रहे एवं पोषण घटकों में कोई कमी न आये।

बिना छिलके वाले अनाजों का प्रसंस्करणः जैसाकि नाम से ही स्पष्ट है, इस प्रकार के अनाजों में छिलका नहीं होता है और प्रसंस्करण के अन्तर्गत इनकी सफाई, छंटाई-बिनाई एवं पिसाई का काम होता है। प्रसंस्करण की प्रक्रिया के दौरान पूरी कोशिश होती है कि प्रसंस्कृत उत्पादों को तेजी से बासी होने से बचाया जाय ताकि इसका पोषण लम्बे समय तक बना रहे। इसके लिए, आटा पीसने की प्रक्रिया में उत्पन्न होने वाली गर्मी को कम करना आवश्यक है। समय के साथ समुदाय को एक समाधान यह सूझा कि कम मात्रा में ही प्रसंस्करण किया जाए जिसकी खपत आसानी से हो सके ताकि उत्पाद की कम से कम मात्रा में बासीपन आये। हालांकि, मडुआ और कुछ पारंपरिक प्रकार के ज्वार एवं बाजरा के संग्रह में कीट अधिक नुकसान नहीं कर पाते हैं, जबकि हाल में विकसित नए प्रकार के मोटे अनाजों में कीटों का अधिक प्रकोप देखा गया जिसके कारण इनका नुकसान हो जाता है। सही आकार एवं भार वाले अनाज को खराब अनाज से अलग करना व उन्हें साफ करना मोटे अनाज को प्रसंस्कृत कर उनको आटा, चोकर या किसी अन्य उपभोग्य रूप में तैयार करने की सरल तकनीक है।

छिलके वाले अनाजों का प्रसंस्करणः छिलके/भूसी वाले अनाजों को साफ करने, वर्गीकृत करने एवं भूसी हटाने की आवश्यकता होती है। छिलका निकालने व साफ करने के बाद इनको पुनः छांटने की आवश्यकता होती है ताकि टूटे हुए और अविकसित अनाजों को अलग किया जा सके। छिलके वाले अनाजों का प्रसंस्करण थोड़ा अधिक जटिल होता है। सबसे बाहरी परत एक कठोर आवरण होता है जिसे छिलका कहा जाता है। छिलके के भीतर ब्रान की एक पतली परत होती है जो आसानी से छिल जाती है। ब्रान परत के भीतर एंडोस्पर्म होता है, जिसे कन कहा जाता है। एक बिंदु पर अनाज के भीतर, छिलका ब्रान परत में घुसा होता है, लेकिन ब्रान परत को तोड़ते हुए अन्दर का भाग अनाज का अंकुरण भाग होता है। छिलका सेलुलोसिक रेशे से भरपूर होता है और मनुष्यों द्वारा पचाया नहीं जा सकता है। इसलिए, इस प्रकार के अनाजों के प्रसंस्करण में छिलका हटाना एक आवश्यक कदम है। ब्रान परत खनिज-लवणों, रेशों और आवश्यक वसा अम्लों से भरपूर होता है। एक अच्छी प्रसंस्करण की प्रक्रिया में ब्रान को अधिक से अधिक बचाना होता है। ब्रान परत वसा से भरपूर होती है, इसलिए यदि हम बासीपन की प्रक्रिया को धीमा करना चाहते है तो यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण होगा कि ब्रान परत को कम से कम नुकसान हो। अंकुरण प्रोटीन से भरपूर होता है और हमें सुनिश्चित करना है कि इसे प्रसंस्करण के दौरान खोया न जाए। एंडोस्पर्म सबसे घना घटक है और जब अनाज के नमी या वायु में सापेक्ष आर्द्रता उच्च होती है, तो यह चिटक या टूट सकता है। इसलिए आवश्यक है कि अनाज को 12 प्रतिशत से कम नमी में सूखाया जाय और जहां तक संभव हो, उष्ण या ठंडे दिनों में प्रसंस्करण किया जाए।

सामुदायिक नेतृत्व वाले प्रसंस्करण उपक्रम – तीन भौगोलिक क्षेत्रों में प्रसंस्करण इकाइयों के मामले
यह लेख भारत के 3 अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में स्थित गाँवों में मोटे अनाजों के संरक्षण, संवर्धन एवं पुनः उपयोग की दिशा में चल रहे प्रयासों की प्रक्रिया पर प्रकाश डालता है। इन सभी प्रयासों में मुख्य रूप से किसान उत्पादक संघों एवं महिला स्वयं सहायता समूहों का नेतृत्व प्रदर्शित है, जिसे स्थानीय स्तर पर काम करने वाली स्वैच्छिक संस्थाओं का मार्गदर्शन मिल रहा है। स्थानीय समुदायों के लिए प्रशिक्षण आयोजित किए गए थे ताकि उनका खेती संबंधित मार्गदर्शन किया जा सके और मोटे अनाज आधारित व्यंजनों से लोगों को पुनः परिचित कराया जा सके। चूंकि इन सभी स्थानों की पृष्ठभूमि अलग-अलग है। इसलिए यह महत्वपूर्ण था कि वे स्थानीय स्थिति-परिस्थिति के अनुसार प्रसंस्करण की प्रक्रिया को समझें व कार्य करें। स्थानीय संस्थाएं, स्थानीय समुदायों के साथ अलग-अलग समयावधि के लिए काम कर रहे हैं। वे खेती की उत्पादकता और मोटे अनाज का घरेलू उपभोग बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, खासकर उन अनाजों को ध्यान दे रहे हैं जो संबंधित समुदायों की पिछली खाद्य संस्कृतियों का मुख्य हिस्सा रहे थे।

तीरथा गाँव, कुण्डगोल तालुक, धारवाड़ जिला, कर्नाटक

हम सबसे पहले कर्नाटक राज्य के धारवाड़ जिला स्थित कुण्डगोल तालुक के तीरथा गांव की ओर चलते हैं। तीरथा गाँव की भूमि लहरदार है और यहां की मिट्टी काली है, जो खेती की दृष्टि से काफी समृद्ध होती है। यह छोटे बाजरे के लिए एक प्रमुख ऐतिहासिक उत्पादन केंद्र का हिस्सा है। यह पहल भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, भारतीय बाजरा अनुसंधान संस्थान, कृषि विज्ञान केन्द्र हुलकोटी-गडग जिला, संरक्षण और खाद्य समानता पर काम करने वाली एक गैर सरकारी संस्था सहज समृद्ध तथा सेल्को ;ैम्स्ब्व्द्ध फाउंडेशन के संयुक्त प्रयास का परिणाम है। वर्ष 2018 से समुदाय के बीच सक्रिय संस्था सहज समृद्ध ने आईआईएमआर के साथ कार्य करना प्रारम्भ किया और आईसीएआर के सहयोग से एक नोडल एजेन्सी के तौर पर केएच पाटिल कृषि विज्ञान केन्द्र हुलकोटी, गडग के साथ प्रसंस्करण इकाई की स्थापना की। इसमेेें छोटे बाजरे की प्रसंस्करण प्रक्रिया, मशीन की विशेषताएँ, प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण आदि का कार्ये मिलेट फाउण्डेशन द्वारा किया गया। देश-प्रदेश में कई संस्थानों द्वारा कई स्थानों पर किये गये इस प्रकार के कार्यों के अनुभवों से यह स्पष्ट हुआ है कि परियोजना समाप्ति के बाद वित्तीय कमी के चलते किसान/संघ/समूह बिजली के महंगे बिलों का भुगतान नहीं कर पाते। परिणामतः प्रसंस्करण इकाईयां बन्द हो जाती हैं। इससे सीख लेते हुए सेल्को फाउण्डेशन ने प्रसंस्करण मशीनें चलाने हेतु ग्रिड ऊर्जा की उपलब्धता पर उपभोक्ताओं की निर्भरता कम करने की दृष्टि से प्रसंस्करण इकाई को सौर ऊर्जा की सहायता प्रदान की।

सहज समृद्ध ने विभिन्न सहयोगी प्रयासों को समन्वित किया। प्रत्येक मौसम में मोटे अनाज के दर्जनों ट््रक भरकर इस क्षेत्र से दूर स्थित प्रसंस्करण केन्द्रों में भेज दिये जाते हैं। मोटे अनाजों के प्रसंस्करण में बहुत अधिक शारीरिक श्रम लगता है। यद्यपि मोटे अनाजों की खेती यहां लगातार की जाती है और इन समुदायों में उतनी खपत नहीं हो पाती है। अतः स्थानीय स्तर पर एक प्रसंस्करण इकाई की स्थापना करके इस समस्या का समाधान किया गया। यह प्रसंस्करण इकाई, वर्ष 2022 में स्थापित एक किसान उत्पादक संघ देवधान्य कृषि उत्पादक संघ के साथ साझेदारी में एक स्वयं सहायता समूह बीबी फातिमा स्वसहाय संघ (बीएफएसएस) द्वारा संचालित किया जा रहा है। बीएफएसएस स्वयं सहायता समूह, तीरथा गांव की 14 महिलाओं को संगठित कर बनाया गया है, जो श्रीमती बीबी जान हालेमानी के नेतृत्व में एकत्र हुई हैं। कुछ ही माह पहले पंजीकृत हुआ फार्मर प्रोड्युसर आर्गनाइजेशन प्रसंस्कृत उत्पादों को स्थानीय बाजारों से जोड़ता है। इस प्रकार के छोटे-मोटे अनाज प्रसंस्करण इकाई की स्थापना इस क्षेत्र के लिए अति आवश्यक थी। अपनी स्थापना से लेकर अब तक बीबी फातिमा स्वसहाय संघ मोटे अनाज प्रसंस्करण इकाई ने लगभग 5 टन हरा बाजरा, कंगनी, कुटकी और चेना का प्रसंस्करण किया है।

सहज समृद्ध, देवधान्य कृषि उत्पादक संघ एवं बीबी फातिमा स्वसहाय संघ ने अपने-अपने सम्पर्कों का लाभ लेते हुए विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से भिन्न-भिन्न स्थानों तक अपनी पहुंच सुनिश्चित की और अपने साथ जुड़े हुए किसानों के उत्पादों का लगभग 80 प्रतिशत उन स्थानों के बाजारों और किसान मेला, जनपद अथवा ब्लाकस्तरीय महोत्सवों सहित अन्य आयोजनों में बेचा है। आगामी महीनों में स्थानीय उपभोग को बढ़ाने का प्रयास करना इस पहल के मुख्य कार्यों में से एक है। साथ ही महिलाओं को प्रसंस्करण सिद्धांतों से परिचित कराना और प्रसंस्करण मशीनों को चलाने के लिए आत्मविश्वास प्राप्त करने हेतु मार्गदर्शन करना तथा समुदायों के युवा सदस्यों को ब्रान के पोषणीय मूल्य के बारे में प्रेरित करना एक चुनौती भी है।

केरल के पलक्कड़ जिले का अटापड़ीः
वर्ष 2021 के अंत में स्थापित अटापड़ी प्रसंस्ककरण इकाई का प्रबन्धन त्रिशूर और तिरूवन्नतपुरम स्थित एक स्वयंसेवी संगठन थनल के सहयोग से स्थानीय समुदाय के सदस्यों द्वारा किया जाता है। अटापड़ी केरल के पलक्कड़ जिले के पश्चिमी घाटों के पूर्वी किनारे पर बसा एक छोटा शहर है। थनल ने वर्ष 2019 में अटापड़ी के समुदाय के साथ मोटे अनाजों पर काम करना शुरू किया था। इन क्षेत्रों के आदिवासी समुदाय बहुत वर्षों से मोटे अनाजों की खेती व उनका उपभोग करते आ रहे हैं। अटापड़ी के आस-पास के गांवों में एक ऐसा मौसम है जिसके परिणामस्वरूप यहां अनिश्चित वर्षा होती है और यह स्वाभाविक है कि छोटे मोटे अनाज यहां के लोगों के भोजन का एक हिस्सा रहे हैं। इन पहाड़ों में उगाई जाने वाली कंगनी स्थलीय मैदान में उगाई जाने वाली अन्य जातियों से काफी छोटी होती हैं। उल्लेखनीय है कि कंगनी को धोने, छांटने और उसके छिलके को हटाने में लगने वाले अत्यधिक मेहनत तथा बारिश की पद्धति व प्रवृत्ति में तेजी से हो रहे परिवर्तन के कारण इसकी खपत में कमी हो गयी थी। इसके साथ यह भी जानने योग्य तथ्य है कि अटापड़ी में अरहर की दाल भी स्थानीय रूप से उगायी जाती है और पास में बहुत से आटा मिल भी नहीं हैं, जिस कारण अरहर के प्रसंस्करण का भी काम आसानी से नहीं हो पाता है।

इन मुद्दों को संज्ञान में लेते हुए एक बहुराष्ट््रीय आईटी कम्पनी यूएसटी से प्राप्त सीएसआर अनुदान के माध्यम से पेस्टीसाइड एक्शन नेटवर्क, भारत ने एक समुदाय केन्द्रित छोटे मोटे अनाज प्रसंस्करण इकाई की स्थापना की थी। छोटे मोटे अनाजों के प्रसंस्करण की प्रक्रिया प्रवाह, मशीनों की विशेषताएं, प्रशिक्षण एवं क्षमतावर्धन करने का कार्य मिलेट फाउण्डेशन द्वारा किया गया। इस इकाई में एक दाल मिल और आटा मिल की भी स्थापना की गयी। फिर भी, संगठनों द्वारा अनेक जागरूकता अभियानों, संगोष्ठियों आदि के बावजूद, विभिन्न कारणों के चलते, इकाई का उपयोग बहुत कम हो रहा था। वर्ष 2022 के उत्तरार्ध में, मशीनों को संचालित करने हेतु स्थानीय महिलाओं की टीम तैयार करने तथा इकाई के कार्यों की देख-रेख करने हेतु थनल के स्थानीय कार्यालय के कार्यकर्ताओं का दूसरे दौर का प्रशिक्षण आयोजित किया गया। स्थानीय समुदाय इकाई को पूर्णतया संचालित करने की दिशा में उत्सुक हैं, क्योंकि उनके पास छोटे मोटे अनाजों से सम्बन्धित उनकी अपनी खाद्य संस्कृति से जुड़ी बहुत सी यादें हैं। प्रसंस्करण इकाई द्वारा मोटे अनाजों की निरन्तर खेती लोगों के भोजन में मोटे अनाजों की वापसी करने हेतु समुदायों एवं स्थानीय संगठनों के लिए एक अवसर प्रदान करती है।

ग्राम- पिपरी, विकास खण्ड- मिश्रिख, जिला- सीतापुर, उत्तर प्रदेशः
यहाँ स्थित प्रसंस्करण इकाई को “सेहत का बरदान“ ;ैाठद्ध कहा जाता है – जो स्वास्थ्य के लिए टूलबाक्स का अनुवाद है। यह अब तक स्थापित छह ऐसी इकाइयों में से सबसे नवीन इकाई है। सेहत का बरदान को संगतिन किसान मजदूर संगठन (एक किसान मजदूर समूह), हेल्थी अवध फाउंडेशन (कंपनी अधिनियम धारा 8 के अंतर्गत स्थापित गैर लाभकारी कंपनी) और संगतिन (सीतापुर स्थित एक स्वयंसेवी संगठन) के संयुक्त तत्वाधान में संचालित किया जाता है। यद्यपि सेहत का बरदान प्रसंस्करण इकाई की स्थापना हाल ही में हुई है लेकिन वास्तव में, संगतिन ने 2014 से ही किसानों के खेतों और उनके आहार में मोटे अनाजों को बढ़ावा देने के लिए समुदायों के साथ काम करना प्रारम्भ किया है। सीतापुर जिले में स्थानीय समुदायों के पास बाजरे की खेती और सेवन करने की भरपूर यादें हैं। वहीं कुछ दूरस्थ गाँवों में कोदो तो कुछ अन्य में कंगनी की यादें हैं। हालांकि, अधिकांश परिवारों ने कुछ मौसमों से लेकर कुछ दशकों तक से अपने आहार में या अपने खेतों में मोटे अनाज देखे तक नहीं हैं।

संगतिन किसान मजदूर संगठन ने वर्ष 2015 में 6000 सदस्यों का स्थानीय किसान मजदूर संगठन बनाकर एक नये आंदोलन की शुरुआत की और मध्य उत्तर प्रदेश के सीतापुर और हरदोई जिलों के 12 विकासखण्डों में फैले हुए हैं। इनके अथक प्रयास के उन परिवारों को खोजने में मदद मिली है जो मोटे अनाज की खेती स्थानीय बीज, मिट्टी और कृषि जलवायु के अनुसार करते रहते हैं। यद्यपि इस पहल के माध्यम से देश के अन्य हिस्सों से नए बीज लाए गए, लेकिन सफलतापूर्वक उनकी खेती केवल कुछ किसानों ने ही की। इस कारण 2 वर्षों के अंदर ही, स्थानीय बीजों की अधिक स्वीकृति होने का स्पष्ट साक्ष्य मिला था। लगभग 500 किसान कोदो, कंगनी और सांवा की खेती अपने वर्षा आधारित खेतों में नियमित रूप से कर रहे हैं। समुदाय में उच्च स्तर के कुपोषण को देखते हुए किसान मजदूर संगठन ने खाद्य और पोषण सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए मोटे अनाजों की खेती पर केन्द्रित किया। इसके अन्तर्गत एक तरफ तो लोगों को मोटे अनाजों की खेती करने हेतु प्रोत्साहित किया गया, इस हेतु उन्हें आवश्यक जानकारियां एवं बीज इत्यादि की उपलब्धता सुनिश्चित कराई गयी तो वहीं दूसरी तरफ समुदाय को इस बात के लिए भी उत्प्रेरित किया गया कि वे अपने नियमित आहार में इन अनाजों का उपभोग करें। इसके लिए विभिन्न जागरूकता अभियानों, संगोष्ठियों, बैठकों, पोस्टरों आदि के माध्यम से इन अनाजों से मिलने वाले पोषक तत्वों एवं उसके मूल्यों के बारे में समुदाय में बताया गया।

मोटे अनाजों, दालांे एवं तिलहनों से लोगों को पुनः परिचित कराने तथा उनके आहार एवं भोजन में इसे शामिल करने की आवश्यकता पर जोर देने की दृष्टि से तीन वर्षों के दौरान विभिन्न गांवों में ताकती खाना शिविर, ऊर्जा खाद्य पकवान का आयोजन किया गया। मिश्रित फसल उत्पाद के पोषणीय लाभों के साथ-साथ अंडे और मांस के लाभ पर भी प्रकाश डाला गया। साथ ही खाद्य प्रथाओं का लागत-लाभ विश्लेषण किया गया। इन लागत-लाभ विश्लेषणों से यह स्पष्ट हुआ कि अन्य अनाजों- गेंहूं, चावल की तुलना में मोटे अनाज अधिक किफायती व पोषण प्रदान करने वाले हैं। इन निष्कर्षों को समुदाय के साथ भी साझा किया गया।

जब लोग मोटे अनाजों की खेती और सेवन करने लगे, तो संगठन के एक सदस्य ने एक धान मिलर से बात की और उसे कुछ मोटे अनाजों का प्रसंस्करण करने के लिए तैयार कर लिया। मिलर ने छोटे पैमाने पर मोटे अनाजों के छिलके को उतारने के लिए धान की पॉलिशर का उपयोग किया। आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले से लाए गए विभिन्न आकार-प्रकार की छलनी का प्रयोग स्थानीय स्तर के ओसाई मशीनों के साथ करके संगठन के सदस्यों ने मोटे अनाज को अपने हाथों से साफ करने एवं छांटने का काम किया। इस कार्य से मोटे अनाजों के चावल मशीन से प्राप्त चावल की अपेक्षा बहुत साफ भले ही नहीं थे लेकिन उनकी गुणवत्ता बनी रही। साथ ही इससे प्रसंस्करण में लगने वाली पूंजी में कमी आयी तथा पोषक तत्व भी यथावत बने रहे, जो किसी अन्य स्थापित इकाई की तुलना में होने वाली लागत का एक अंश मात्र था। 2020 में, पहल की शुरुआत के 6 साल बाद, संगठन द्वारा छोटे पैमाने पर एक स्वचालित प्रसंस्करण सुविधा स्थापित करने का निर्णय लिया गया था – जो संगतिन द्वारा प्राप्त परोपकारी वित्तीय सहायता, द मिलेट फाउंडेशन से तकनीकी सहायता और एसकेएमएस के बुनियादी सहयोग से सम्भव हो पाया। इकाई के संचालित होने के छः महीने के बाद सेहत का बरदान द्वारा 2.5 टन अनाज खरीद कर उसकी साफ-सफाई की गयी। 0.5 टन सांवा व कोदो चावल का लगभग दो तिहाई भाग स्थानीय समुदाय में बेच दिया गया है और शेष तिहाई भाग लखनऊ और उत्तर प्रदेश के अन्य हिस्सों में व्यक्तियों और संगठनोें को बेचा गया है।

इस प्रकार इस पहल में इन तीन अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में मोटे अनाज उत्पादन और खपत को पुनर्जीवित करने का काम चल रहा है। इनमें स्थानीय स्तर पर मोटे अनाज प्रसंस्करण, जितना संभव हो पोषण संबंधी घटकों को बनाए रखने हेतु और मोटे अनाज आधारित खाद्य पदार्थों को पुनः आहार में शामिल करने के लिए पुरुषों और महिलाओं को प्रशिक्षण देकर कौशल विकसित करना शामिल है। इनमें अधिकतर लघु एवं सीमान्त किसान है या ऐसे किसान हैं जो खान-पान की शैली में मोटे अनाजों को शामिल करने के इच्छुक हों।

चुनौतियांः
कोविड 19 महामारी के कारण प्रशिक्षण और प्रसंस्करण इकाई की स्थापना के लिए नियोजित समय-सीमा में बाधा आई। लेकिन, समुदाय अपने पोषण में सुधार के लिए उस कठिन दौर में भी ध्यानपूर्वक लगा रहा। इसमें अन्य चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है। उदाहरण के लिए, स्थानीय समुदायों में मशीनों को चलाने के लिए दक्ष व्यक्ति को खोजना, छोटे स्तर पर विकेन्द्रीकृत प्रसंस्करण इकाईयों और कुछ उत्पादों पर जीएसटी लगना जैसी समस्या आदि। यद्यपि अभी बाजार-केन्द्रित दृष्टिकोण को मुख्यधारा में लाने पर प्रमुख रूप से ध्यान दिया जा रहा है। तथापि स्थाई खाद्य प्रणालियों के लिए जनकेन्द्रित विकेन्द्रीकृत समुदाय के स्वामित्व वाली प्रक्रियाओं पर जोर दिया जाना आवश्यक है।

संभावनाएंः
उपर दिये गये तीन उदाहरणों की सफलता के आधार पर और विभिन्न जलवायुगत चुनौतियों को देखते हुए, अगले कुछ वर्षों में, ऐसी कई प्रसंस्करण इकाइयों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। ये एक विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था के मशाल वाहक, नवोन्वेषी पारिस्थितिकी तंत्र को सशक्त करने तथा पोषण तक पहुंच में सुधार करने हेतु स्थानीय समाधानांे के लिए अपनी सेवाएं देंगे।


द्विजी गुरू
मिलेट फाउण्डेशन
साईदीप अपार्टमेण्ट्स, 41, गोविन्दप्पा मार्ग,
बासवनगुडी, बंगलोर- 560 004, भारत
ई-मेल- dwiji@themillet.org


Source: Millet Farming System, LEISA India, Vol, 25, No.1, March 2023

Recent Posts

Facebook
YouTube
Instagram
WhatsApp