भारत में कृषि पारिस्थितिकी के लिए महिलाओं की शक्ति

Updated on December 5, 2020

बंगलौर, कर्नाटक के निकट स्थित प्रशिक्षण केन्द्र अमृता भूमि के समन्वयक चुक्की नंजुंदस्वामी कहते हैं, ‘‘हमें पता था कि हमारी बीजों की देशी प्रजातियों को बचाने और पारम्परिक खेती के ज्ञान को संचारित करने के लिए हमें स्थान की आवश्यकता है। यही कृषि-पारिस्थितिकी है और इससे प्रकृति को नुकसान नहीं पहुंचता है।’’ यह प्रशिक्षण केन्द्र कृषि पारिस्थितिकी प्रशिक्षण केन्द्र के तौर पर स्थापित किया गया है, जहां पर यह सिद्ध किया जाता है कि एक वैकल्पिक कृषि मॉडल अस्तित्व में हो सकता है। ला विया कम्पेसिना के एक सदस्य के तौर पर, यह केन्द्र किसानों के लिए किसान से किसान तक दृष्टिकोण, कृषि-पारिस्थितिकी केन्द्रित, किसानों के अधिकार, खाद्य सम्प्रभुता एवं सामाजिक न्याय जैसे बिन्दुओं पर प्रशिक्षण प्रदान करता है।


व्यवसायिक एवं औद्योगिक कृषि ने वैश्विक रूप से अधिकांश महिला किसानों को सामने नहीं आने दिया है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है। अब भारत में बदलाव आ रहा है और शून्य लागत प्राकृतिक कृषि अभ्यासों को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिसे बहुधा समुदाय प्रबन्धित प्राकृतिक खेती के रूप में जाना जाता है। एक मिलियन के लगभग छोटे-मझोले किसान इस प्रकार की खेती के अभ्यासों को कर रहे हैं। यह भी उल्लेख करना अधिक महत्वपूर्ण होगा कि ऋण, भूमि, व्यवसायिक बीजों आदि तक बहुत कम पहुंच होने के बावजूद महिलाएं इन अभ्यासों की तरफ मजबूती से प्रवृत्त हो रही हैं।

अपने सामुदायिक नेटवर्कों एवं स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से ये महिलाएं एक गांव से दूसरे गांव तक कृषि पारिस्थितिकी को विस्तारित करते हुए न केवल परिवार के पोषण, आय एवं मृदा स्वास्थ्य को उन्नत करने का काम कर रही हैं, वरन् अपनी पहचान एवं स्वाभिमान को भी बढ़ाने का काम कर रही हैं। उनके अभ्यासों के अन्दर नारीवादी तर्कों ने पारम्परिक बाजार पहलुओं पर वरीयती पाई है। हालांकि इस दृष्टिकोण से राजनीतिक तनाव एवं विवाद भी उत्पन्न हुए हैं।

आन्ध्र प्रदेश में, बिना किसी महिला किसान अभियान के, महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों ने कृषि पारिस्थितिकी कृषिगत अभ्यासों के सिद्धान्तों का विस्तार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन अभ्यासों को मापना असंभव होगा, फिर भी लगभग 600000 किसान इन गतिविधियों को कर रहे हैं और इस दशक के अन्त तक यह संख्या 60 लाख तक पहुंचाने का लक्ष्य है। इस कार्यक्रम के अधिकांश कार्यकर्ता और प्रशिक्षक महिला किसान ही हैं।

आन्ध्र प्रदेश के अनन्तपुर में अधिकांश भूमिहीन महिला किसान हैं। इनमें से कुछ ऐसे किसानों की विधवाएं हैं, जिन्होंने परिस्थितियों से बाध्य होकर आत्महत्या कर ली ;भारत में आत्महत्या एक निरन्तर चलने वाली त्रासदी हैद्ध, जबकि अन्य दूसरी ऐसी महिलाएं हैं, जिन्हें मानव-तस्करी से बचाया गया था। लगभग सभी जातिगत भेद-भाव का शिकार हैं। उनके एक समूह ने सामूहिक रूप से मिलकर एक ऐसी भूमि को किराये पर लिया, जो पहले परती पड़ी हुई थी। इन महिलाओं ने आपस में अपनी दक्षता, जानकारी एवं श्रम को साझा करती हैं और अपने परिवारों के लिए कीटनाशक मुक्त खाद्यान्न उपजाती हैं। वे अपने उपभोग के बाद अधिक बचे अनाजों को बेच देती हैं और सूक्ष्म उद्यम के तौर पर साइकिल से उपभोक्ताओं को सब्ज़ियों की आपूर्ति भी करती हैं। इसे वे और विकसित होते हुए देखने के लिए उत्सुक हैं। महिलाओं ने संगठित होकर चक्रीय प्रणाली के आधार पर खेतों में काम करने का निश्चय किया ताकि व ेउपज एवं घर की देख-भाल दोनों कर सकें। यहां नारीवादी तर्कों ने परम्परागत बाजार पहलुओं के उपर वरीयता पायी है। महिलाएं फसली ऋतु में एक दूसरे को आंशिक मजदूरी का भुगतान करती हैं ताकि उपज आने से पहले घर की अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए आय होती रहे। आर्थिक स्थिति को उन्नत करने के अलावा कृषि-पारिस्थितिकी ने महिला किसानों को खाद्य सम्प्रभुता, आत्म-सम्मान एवं गरिमा के रूप में भी लाभ प्रदान किया है।

कर्नाटक के गोट्टाईगहेली में रहने वाली सुजाता एवं उनके पति जगदीश लगभग 10 वर्षों से अपने 4 एकड़ खेत में प्राकृतिक खेती अभ्यासों को अपना रही हैं। सुजाता का कहना है, ‘‘यद्यपि रसायनिक खेती से हटना एक चुनौती थी, लेकिन जैसा कि उन्होंने समझा था कि बहुत सी स्वास्थ्य आपदाओं का मुख्य कारण रसायनिक कीटनाशकों एवं उर्वरकों का प्रयोग करना है। अब वे अपने खेत को प्राकृतिक खेती के पांच स्तरीय मॉडल के अनुसार खेती करती हैं। ये एक ऐसी पारिस्थितिकी प्रणाली है, जिसमें खेत से ज्यादा वन होते हैं। जगदीश कहते हैं, ‘‘मेरे खेत पर 200 से ज्यादा प्रजातियों के पेड़-पौधे उगाये गये हैं।’’ इस दम्पत्ति ने अपने खेत में केला, नारियल, अमरूद, कटहल, गंजी, दलहन एवं नीबू लगाये हैं साथ ही इन्होंने खेत के ढलान वाले क्षेत्र पर काफी की खेती प्रयोग के तौर पर की है।

इनके खेत मुर्गियों एवं बकरियों से मुक्त हैं। लम्बे-लम्बे वृक्ष, सफेद ओक एवं मोरिंगा, एक प्राकृतिक बाड़ तैयार करते हैं और जब इन वृक्षों की पत्तियां गिरती हैं तो वे जमीन के लिए मल्चिंग का काम करती हैं, जिससे मृदा में जीवाश्म तैयार होता है।

निसर्ग निसर्गका सव्यावा क्रुशिकारा संघ होन्नूर, कर्नाटक की एक स्व-शासित सहकारी समूह है। इसके सभी सदस्य सामाजिक एवं जातिगत भेद-भाव को किनारे रखते हुए प्राकृतिक खेती अभ्यासों को मिलकर करते हैं। एक तरफ जहां शून्य लागत प्राकृतिक खेती को सफलतापूर्वक बढ़ाया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ इसकी लोकप्रियता के चलते राजनीतिक चुनौतियां एवं विवाद भी उत्पन्न हो रहे हैं। मृदा की सूक्ष्म जीवाश्म गतिविधियों को बढ़ाने के लिए गाय के गोबर से तैयार खाद एवं गौमूत्र से तैयार कीटनाशक का उपयोग करना शून्य लागत प्राकृतिक खेती अभ्यासों के लिए मुख्य है। कुछ आलोचकों ने कुछ समुदायों के बहिष्कार तथा आनुवांशिक रूप से संशोधित बीजों के कार्यक्रम के बारे में भ्रम फैला रखा है। आन्ध्र प्रदेश सरकार इस दृष्टिकोण में जीएम एवं हाइब्रिड बीजों के उपयोग से दूर हैं, जबकि अन्य समूह इसके उपयोग को संस्तुति देते हैं। इस प्रकार, इसकी उपलब्धता का विस्तार होने के बावजूद इस बारे में अभी भी सन्देह है कि क्या शून्य लागत प्राकृतिक खेती अभ्यासों को भारत के बीटी कॉटन क्षेत्र जैसे उन प्रणालियों में भी सफलता मिलेगी, जो औद्योगिक निवेशों एवं तकनीकों पर ज्यादा निर्भर करते हैं।

विश्व के अधिकांश देशों में, बायम्मा रेड्डी जैसी महिलाएं कृषि-पारिस्थितिकी, अपनी ज्ञान-सम्पदा एवं खेती में अपनी भूमिका को फिर से प्राप्त करने के माध्यम से लम्बे समय से पारम्परिक बीजों की संरक्षक रही हैं। जब बायम्मा के बेटे उच्च शिक्षा के लिए बाहर चले गये, तब उन्होंने पीढ़ियों से प्राप्त खेती से सम्बन्धित जानकारी एवं दक्षता का उपयोग करते हुए अपने घर के निकट के अपने छोटे से खेत के टुकड़े पर प्राकृतिक खेती अभ्यासों को करना प्रारम्भ किया। वे आन्ध्र प्रदेश के बालाकबरई पाल्ली की रहने वाली हैं, जिसकी गिनती देश के सर्वाधिक सूखा प्रवण जिलों में होती है। इन क्षेत्रों में, अत्यधिक सिंचाई की आवश्यकता वाली तथा महंगे निवेशों की उपलब्धता न होने के कारण व्यवसायिक फसलों को लगाना संभव नहीं है। विविध प्रकार की खाद्य उपलब्धता को सुनिश्चित करने तथा फसल नष्ट होने के जोखिम को कम करने के लिए बायम्मा एवं इनके पति ने मानसून आने से पहले नवदान्या के पारम्परिक अभ्यासों को अपनाया। नवदान्या अभ्यास के अन्तर्गत अनाज एवं मोटे अनाजों के नौ संयोजनों की बुवाई की जाती है।

कविता कुरूगन्ती द एलायन्स फॉर सस्टेनेबुल एवं होलिस्टिक एग्रीकल्चर ;आशाद्ध की संस्थापक हैं। यह राष्ट््रीय स्तर की संस्था मकाम से भी जुड़ी हुई हैं, जिसमें 120 से अधिक लोग, महिला समूह, स्वयंसेवी संगठन, शोधार्थी एवं कार्यकर्ता जुड़े हैं और जो भारत के 24 से अधिक राज्यों में महिला किसानों को उनके हक, अधिकार दिलाने के लिए कार्यरत है। हाल ही में अपने एक साक्षात्कार में कविता ने बताया कि ‘‘किस प्रकार पारम्परिक रूप से महिलाओं को कृषि से सम्बन्धित श्रमसाध्य कार्यों जैसे- रोपाई, निराई, कटाई आदि में लगाया गया है।’’ इसके साथ ही वह यह भी बताती है कि ‘‘बाजार आधारित कृषि होने के कारण, जड़ी-बूटियों एवं मशीनों पर बढ़ती निर्भरता के कारण, निर्णय लेने का काम पुरूषों ने अपने हाथ में ले लिए हैं।’’ कृषि-पारिस्थितिकी अभ्यासों को अपनाते हुए महिलाएं अपने निर्णय लेने के अधिकार को वापस पा सकती हैं।

यह फोटो स्टोरी दक्षिणी भारत में फरवरी, 2020 में एक सप्ताह की सीख एवं अनुभव आदान-प्रदान कार्यशाला एवं प्रक्षेत्र भ्रमणों पर आधारित है। इसमें 30 देशों के 100 से अधिक कृषि-पारिस्थितिकी अभ्यासकर्ताओं, सलाहकारों, शोधार्थियों एवं नीति नियन्ताओं ने भाग लिया था। फोटो स्टोरी के अन्दर सभी फोटो सौम्या सरकार बोस द्वारा लिये गये हैं एवं लेखन कार्य अमृता गुप्ता ने किया है।

अमृता गुप्ता एवं सौम्या शंकर बोस


अमृता गुप्ता एवं सौम्या सरकार बोस
कृषि-पारिस्थितिकी फण्ड
ई-मेल:amrita.agroecologyfund@gmail.com

Source: Farming Matters- October 2020

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