स्थाई कृषि-पारिस्थितिकी अभ्यास

Updated on December 2, 2020

किसानों के अन्दर पारम्परिक अभ्यासों की ओर वापस लौटने की एक उत्साहजनक प्रवृत्ति है, जो पर्यावरण-सम्मत भी होती है और जिससे सतत् उत्पादन भी मिलता है। यदि किसान कृषि पारिस्थितिकी खेती को बड़े पैमाने पर करना चाहते हैं तो ज्ञान के विस्तार करने और किसानों को पर्याप्त सहयोग देने की अत्यन्त एवं त्वरित आवश्यकता है।


पारम्परिक कृषिगत अभ्यास आज भी प्रासंगिक हैं। वे छोटे एवं मझोले किसानों के रीढ़ की हड्डी हैं। आधुनिक कृषिगत अभ्यासों की ओर उन्मुख होने के बाद से, बहुत से किसानों ने पारम्परिक अभ्यासों को अपनाना बन्द कर दिया है। फिर भी, कुछ किसान आज भी इन अभ्यासों को निरन्तर अपना रहे हैं। इसके साथ ही जैविक खेती को मुख्य धारा में लाने के साथ भी यह एक उम्मीद जगी है कि संसाधन प्रबन्धन के ये पारम्परिक अभ्यास अपने महत्व को दुबारा पा सकेंगे।

फार्म यार्ड मेन्योर का प्रयोग एक पारम्परिक अभ्यास है, जिसे मूल्य संवर्धन के साथ पुनः अपनाया जा रहा है। फार्म यार्ड मेन्योर में कम्पोस्ट कल्चर, रॉक फासफेट मिलाकर अथवा नाडेप विधि से खाद बनाकर इसे उपजाउ बनाया जा रहा है। कर्नाटक के उत्तरी भागों में पहले जानवरों के मूत्र को एकत्र किया जाता था और खाद को समृद्ध बनाने के लिए खाद के गढ्ढे में इस मूत्र को डाल दिया जाता था। यह प्रथा आज गायब ही हो गयी है।

पारम्परिक जैविक अभ्यासों को पुनर्जीवित करने और बढ़ावा देने के लिए मुख्य धारा में शामिल एजेन्सियों द्वारा कुछ प्रयास किये जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, कर्नाटक सरकार द्वारा अपनी जैविक खेती परियोजना के माध्यम से कम्पोस्ट कल्चर उपलब्ध कराकर समृद्ध खाद तैयार करने को प्रोत्साहित किया जा रहा है। बालू के साथ जानवरों के मूत्र को मिलाकर जैविक यूरिया तैयार करने की विधि पर किसानों को प्रशिक्षित भी किया गया। चिक्कानायकाहल्ली तालुक के कोरागेरे गांव के रहने वाले नवोन्वेषी किसान श्री के0आर0 राजशेखरइया राख में जानवरों के मूत्र को मिलाते हैं और उसे खाद के रूप में प्रयोग करते हैं। उन्होंने इसके अच्छे परिणाम देखे।

इसी प्रकार ऐसे बहुत से अभ्यास हैं, जो बहुत उपयोगी हैं, परन्तु अब उन्हें नहीं अपनाया जाता है। उदाहरण के लिए, मृदा में जलग्रहण क्षमता बढ़ाने के लिए तालाब की गाद का उपयोग करना, जाड़े में जुताई करना, जिससे फसल अपशिष्टों एवं खर-पतवारों को मृदा में मिलने से सहायता मिलती है, भेड़ों को बिठाना आदि। हालांकि अभी भी पारम्परिक भेड़ पालन क्षेत्रों में भेड़ों को खेतों में बिठाया जाता है। बहुत कम क्षेत्रों जैसे- रायचूर में हम जानवरांे को बांधना तथा तुमकुर और अरासीकेर में गधा को बांधकर रखते है। करीब एक दशक पहले तक हम बड़ी मात्रा में अपने खेतों में फसल अपशिष्टों को जलाना देख सकते हैं। गन्ना उगाने वाले क्षेत्रों जैसे- बेलागवी, बागलकोटे, मैसूर आदि क्षेत्रों में हम यह एक सामान्य दृश्य के तौर पर देख सकते हैं। अब किसान फसल अपशिष्टों के पोषण मूल्य को समझ गये हैं और इसीलिए वे पुनः पोषणों का पुनर्चक्रीकरण करते हुए पुःन मृदा को वापस कर रहे हैं।
एक बार जब ये फसल अपशिष्ट खेत से बाहर चले जाते हैं या जला दिये जाते हैं, तो इनमें से पोषण हमेशा के लिए नष्ट हो जाता है। तुमकुर, हासान, मण्डया, चिकमगलौर आदि नारियल के क्षेत्रों में पहले किसान सस्ते दामों पर नारियल के खोलों को बेच देते थे, जिससे पोषक तत्वों को खो देते थे। जागरूकता बढ़ने के साथ, किसानों ने इन खोलों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर मिट्टी में मिलाना प्रारम्भ कर दिया। तुमकुर जिले के तिपतुर के प्रोफेसर नन्जुन्दप्पा, जो किसानांे को जैविक खेती पर शिक्षा देते हैं, उन्होंने नारियल के खोलों को चापिंग मशीन से छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर अपने बगीचे में उपयोग किया। वे पिछले 10 वर्षों से शून्य जुताई एवं संसाधनों के पुनर्चक्रीकरण पर भी जागरूकता निर्माण करने में संलग्न हैं।

इसी प्रकार, धारवाड़ जिले के कमपलीकोप्पा गांव के रहने वाले एक छोटे किसान श्री मालेशप्पा हक्कालदा के खेतों से भी कुछ नहीं निकलता था। इन्होंने वृक्ष आधारित खेती को अपनाया और मेड़ों पर चारा की खेती करने लगे। इन्होंने सभी फसल अपशिष्टों को खाद में परिवर्तित किया और पुनः खेतों में उपयोग किया। फलदार वृक्षों की पत्तियों से खेत पर एक परत सी बिछ जाती है, जो मल्चिंग का काम करती है। इनके पास चार दुधारू जानवर भी हैं। इससे इन्हें स्थानीय ग्राम पंचायत के सहयोग से बायोगैस इकाई निर्माण करने एवं अपनाने में सहायता मिली। जानवरों को चारा खिलाते हैं, जिससे गोबर प्राप्त होता है, जो बायोगैस इकाई में जाता है। बायोगैस इकाई से निकला तरल अपशिष्ट खाद के गढ्ढे में जाता है और वहां से खाद तैयार होने के बाद खेत में पड़ता है। मालेशप्पा कहते हैं, ‘‘सिर्फ अनाज, दूध एवं चारा वृक्षों की जड़ें ही हमारे खेत से बाहर जाती हैं।’’

आन्ध्र प्रदेश के वाइजैग जिले में मादुगला मण्डल के सगाराम गांव में रहने वाले एक छोटे किसान श्री रविकुमार का कहना है, ‘‘बाहरी संसाधनों पर मेरी निर्भरता बहुत ही कम है। मैंने एक चारा काटने वाली मशीन रखी है, जिसकी मदद से मैं कुशलतापूर्वक चारा काट लेता हूं और जो अपशिष्ट बचता है, उसे सड़ने हेतु खाद बनाने वाले गढ्ढे में भर देता हूं।’’ उनके पास सात गायें और दो भैंसे हैं। उन्होंने लगभग 8 टन खाद अपने खाद गढ्ढे में तैयार किया और फसल उगाने हेतु उसका उपयोग अपने खेत में किया। वे अपशिष्ट डिकम्पोजर का उपयोग करते हैं, संसाधनों का कुशलतापूर्वक पुनर्चक्रीकरण करने हेतु अजोला की खेती करते हैं। रविकुमार ने अपने सात एकड़ खेत में बहुस्तरीय फसल प्रणाली को अपनाया है, जिसमें वे अमरूद, नारियल, केला, धान एवं चारा की खेती करते हैं।

आगामी रणनीति
कृषि-पारिस्थितिकी खेती अभी भी कुछ थोड़े से क्षेत्रों में ही देखी जा रही है। कुशल पुनर्चक्रीकरण के लिए, कम से कम एक दुधारू गाय, कुछ छोटे जानवर जैसे- बकरी/भेड़, चारा, मेड़ों पर चारा एवं फसल अपशिष्टांे को खाद में परिवर्तित करना आवश्यक है। बहुत सी बाहरी एजेन्सियां वैकल्पिक तरीकों को प्रोत्साहित एवं उत्साहित करती हैं, लेकिन वे परियोजना की आवश्यकता के अनुसार काम करती हैं और एक सीमित समय के लिए ही काम करती हैं। उदाहरण के लिए, नाबार्ड में वाटरशेड के जलवायुरोधी बनाने, हरी खाद के माध्यम से संसाधनों के कुशल पुनर्चक्रीकरण पर केन्द्रित कार्य करने, गाद का प्रयोग करने, गहरी जुताई करने एवं वर्मी कम्पोस्ट तैयार करने आदि पर कार्य किया जा रहा है। कृषि विभाग एवं कृषि विज्ञान केन्द्र समृद्ध खाद को तैयार करने के लिए कम्पोस्ट कल्चर की आपूर्ति कर फार्म यार्ड मेन्योर को मूल्य सवंर्धित करने हेतु प्रोत्साहित कर रहे है। फिर भी, यदि किसान कृषि पारिस्थितिकी खेती को बड़े पैमाने पर करना चाहते हैं तो ज्ञान के विस्तार करने और किसानों को पर्याप्त सहयोग देने की अत्यन्त एवं त्वरित आवश्यकता है।

एम एन कुलकर्णी


एम एन कुलकर्णी
अतिरिक्त मुख्य कार्यक्रम कार्यकारी
बायफ इन्स्टीच्यूट फार सस्टेनेबुल लाइवलीहुड्स एण्ड डेवलपमेण्ट
द्वारा: ट््राइकोर, कोनेरू लक्ष्मइया गली
मोगलराजापुरम, विजयवाडा, आन्ध्र प्रदेश
ई-मेल: mnkulkarni65@gmail.com

Source: Agroecology- The future of farming, LEISA India, Vol.21, No.3, September 2019

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