बहुत सी चुनौतियों जैसे लॉकडाउन के दौरान परिवहन की सुविधाओं का न होना, टिड्डियों का आक्रमण एवं अन्य दूसरी चुनौतियों के बीच भी भारत-पाकिस्तान की सीमा पर बसे गाँवों में रहने वाले किसानों ने अपनी अनुकूलन क्षमता को बढ़ाया है और उम्मीद से कहीं अधिक लचीले हो गये हैं।
बीकानेर के गोदू गाँव के सदासुख बेनीवाल कहते हैं, ‘‘2020 हम लोगों के लिए उतना बुरा नहीं था।’’ जबकि कोविड-19 महामारी के चलते पूरे देष में उथल-पुथल की स्थिति बनी हुई थी, उस समय भी भारत-पाकिस्तान सीमावर्ती गाँवों में किसानों के लिए स्थितियां काफी भिन्न हैं। सबसे शुष्क राज्य के रूप में चिन्हित राजस्थान में इस वर्ष अच्छी वर्षा हुई। भारतीय मौसम विभाग द्वारा एक सामान्य वर्ष में दर्ज की गयी औसत वर्षा से अधिक वर्षा जैसलमेर जिले में हुई।
मार्च में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा प्रथम चरण के लॉकडाउन की घोषणा की गयी, उस समय पूरे जैसलमेर जिले और बीकानेर के अन्य सीमावर्ती जिलों के किसान एक विषम स्थिति में थे। जैसलमेर जिले के ओधनिया गाँव की एक महिला किसान लक्ष्मी देवी कहती हैं, ‘‘लॉकडाउन के तुरन्त बाद स्थानीय मण्डियों को पूरी तरह बन्द कर दिया गया था। हमारे पास बीकानेर या जैसलमेर की मण्डियों से खरीफ ऋतु के लिए बीज बेचने या खरीदने का कोई विकल्प नहीं था। हमने खुद को आस-पास के गाँवों और पोखरण बाजार तक सीमित कर लिया था।’’
लक्ष्मी देवी जैसे किसान अपने खेतों में क्रमिक खेती करते हैं। यह अभ्यास इस वर्ष काफी भाग्यषाली रही। उन्होंने बताया, ‘‘जब लॉकडाउन लगा, तब सभी कुछ ठीक था, लेकिन जब हमने आस-पास के गाँवों में फसलों पर टिड्डियों के दल के हमले की बात सुनी, तो हम सभी बहुत चिन्तित हो गये। यह खरीफ ऋतु की शुरूआत थी और हमने अपने खेत में बहुत कुछ लगा रखा था। मुझे उम्मीद भी नहीं होगी कि मेरी फसल नष्ट हो जायेगी।’’ सौभाग्य से लक्ष्मी देवी के खेत एवं उनके गाँव पर टिड्डियों का हमला वैसा नहीं हुआ जैसा अन्य गाँवों पर हुआ था। उन्होंने इसके लिए अपनी लचीली फसल प्रणाली तैयार की। विस्तार से बताते हुए लक्ष्मी कहती हैं, ‘‘पहले इनका हमला बहुत कम होता था। जब भी कीटों का हमला हुआ, कुछ ही फसलें नष्ट हुईं। जैसा कि हमारे पूर्वजों ने देखा था और हमें खेत में बहुफसली खेती करना सिखाया था। कीट कुछ फसलों की ओर आकर्षित होते हैं और कुछ फसलों की और नहीं आकर्षित होते हैं, जो विकर्षक के रूप में कार्य करते हैं। आखिरकार कुछ फसलें हमारे लिये सुरक्षित रह गयीं।’’ उनके इस तर्क से बहुत से वृद्ध किसान सहमत थे क्योंकि उन्होंने यह अनुभव किया कि जिन किसानों ने एकल फसल लगाई थी और कीटनाषकों का अधिक इस्तेमाल किया था, उन्हीं पर टिड्डियों का हमला अधिक हुआ। बीकानेर जिले के फुलासर गाँव के 62 वर्षीय किसान प्रेमा राम कहते हैं कि, ‘‘हमने बहुत से कीटों को देखा है और इस रेगिस्तान में बहुत सी फसलें उगायी हैं। लेकिन जब हमने बहुफसली खेती की, तब कीटों का हमला कम हुआ। हम बाजार आधारित बीजों का उपयोग नहीं करते हैं। हम अपनी फसलों के लिए जैविक खाद और कीटनाषक के रूप में निम्बोड़ी (नीम के बीज) से तैयार नीमास्त्र एवं गौमूत्र का उपयोग करते हैं और ये काफी सुरक्षित हैं।’’
लक्ष्मी देवी जैसी महिला किसान जो सूखाग्रस्त क्षेत्र में 25 बीघा खेती करती हैं, वे इस लॉकडाउन को लेकर काफी आषंकित थीं। उन्होंने कहा, ‘‘मेरा परिवार पूर्णतया खेती और कुछ श्रम पर आधारित है लेकिन मैं कहूंगी कि कोरोना ने हमें प्रभावित नहीं किया। हम पर इस लॉकडाउन का एकमात्र प्रभाव यह पड़ा कि हमारी पहुँच बाजारों तक नहीं हो पायी। स्थानीय बाजारों में भी न तो हम अपने उत्पादों को बेच पाये और नही बाजार से बीज खरीद पाये।’’
जब पूरी दुनिया में एक तरह से अराजकता की स्थिति थी, उस समय राजस्थान में ये किसान अपने परम्परागत ज्ञान प्रणाली का उपयोग करते हुए अपने-आप को प्रभावी ढंग से प्रबन्धित कर रहे थे। ये अपने स्वयं के बीज का उपयोग कर रहे थे, अपने पारम्परिक खाद जैसे- नीमास्त्र, कीटनाषक आदि का उपयोग कर रहे थे और स्थानीय गाँव स्तर की मण्डियों में अपने उत्पादों को भी बेच रहे थे।
स्थानीय स्वैच्छिक संगठन के साथ काम करने वाले बज्जू तेजापुरा गाँव के एक युवा ओमप्रकाष कहते हैं, ‘‘किसानों’’ की जिन्दगी उन मजदूरों की तरह कठिन नहीं थी, जो शहरों में काम न होने के कारण अपने गाँवों को वापस लौट आये थे। उनमें से कुछ को तुरन्त खेतों में मजदूरी मिल गयी, जबकि कुछ मजदूरों को गैर कृषिगत कार्यों के प्रारम्भ होने तक इन्तजार करना पड़ा। बीकानेर जिले के कोलायत तहसील अथवा पोखरण तहसील के अधिकाँष गाँवों में इन प्रवासी मजदूरों को खेतों में काम मिल गया। वे गाँव, जिन्हें लोग छोड़कर चले गये थे, जो भूतों का डेरा बन गया था, वहाँ पर भी इस वर्ष खेती शुरू हो गयी। ये मजदूर मूंग, मूंगफली आदि फसलों को उगाने लगे। सदासुख बेनीवाल कहते हैं, ‘‘जब कम्पनियों ने उनकी छुट्टी कर दी, उस समय ग्रामीण भारत ने ही उन्हें काम दिया। प्रकृति माता की गोद में सबके लिए काम है, फिर भी लोग काम के लिए कस्बों की ओर जाते हैं।’’ उन्होंने कुछ युवाओं की सराहना भी की, जो वापस आ गये थे। सदासुख पुनः कहते हैं, ‘‘वे इण्टरनेट पर विक्रय संस्थानों की खोज कर हमारी मदद करना चाहते हैं। हम जल्द ही ऐसा करेंगे।’’
किसानों की समस्याओं को इंगित करते हुए ओमप्रकाष कहते हैं, ‘‘कोविड के साथ या बिना कोविड के थार के किसानों ने बिना खेतों में फसल जलाये खरीफ की फसलों को उगाया।’’ इसके अतिरिक्त महामारी के दौरान न्यूनतम समर्थन मूल्य भी एक बड़ी चुनौती थी। 16, गोडू गाँव के दुर्जन सिंह कहते हैं कि, ‘‘कृषि क्षेत्र को हमेषा अनदेखा किया गया लेकिन इस बीमारी को हमेषा दोषी नहीं ठहराया जा सकता। हर कोई इसे एक बहाने के रूप में ले रहा है।’’ अधिकाँष किसान अपने उत्पादों को सरकार को नहीं बेच सके। इस सन्दर्भ में ओमप्रकाष सूचित करते हैं कि, ‘‘न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीददारी करने वाले ऑनलाइन पोर्टल बन्द थे।’’ इनका यह भी कहना था कि गाँवों में आपस में उत्पादों का आदान-प्रदान और विकासखण्ड मुख्यालय में स्थित छोटी-छोटी मण्डियांे ने ऐसे कठिन समय में किसानों की सहायता की थी।
यद्यपि सामान्य तौर पर यह वर्ष काफी मुष्किल भरा था, किसानों को उन नये परिवर्तनों के बारे में जानने की उत्सुकता थी, जो इस वर्ष अक्टूबर में पंचायत चुनावों के बाद निष्चित तौर पर सामने आने वाले थे। सदासुख कहते हैं, ‘‘किसानों के विषय को लिया गया है और पंचायत चुनाव में खड़े होने वाले कुछ उम्मीदवारों ने प्रौद्योगिकी की आवष्यकता को स्वीकार किया है। वे हमारे उत्पादों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पोर्टल, अमेजन एवं अन्य ऑनलाइन पोर्टलों पर लाने हेतु रास्ता तलाष रहे हैं।’’
थार के किसानों की कहानी में निराषा और खुषी की मिश्रित भावनाएं दर्षायी गयी हैं लेकिन वे पीढ़ियों से चली आ रही अपनी परम्परागत पद्धतियों के उपर अपने तरीके से काम करने की आवष्यकता के बारे में आषंकित थे।
रितुजा मित्रा
रितुजा मित्रा अनुसंधान सलाहकार उर्मुल ट्रस्ट उर्मुल भवन, बीकानेर - 334 001 राजस्थान ईमेल - ritujamitra18_dev@apu.edu.in
Source: Agroecology and going local, LEISA India, Vol.22, No. 4, December 2020



