सब्जी – आधारित खेती प्रणाली उचित फसल संयोजन के माध्यम से लाभ में वृद्धि

Shobha Maiya

Updated on September 2, 2021

जलवायु परिवर्तन थ्रेषहोल्ड के साथ निरन्तर आने वाली बाढ़ और लम्बी अवधि के जल-जमाव की जोखिमों के बीच, पूर्वी उत्तर प्रदेष और उत्तरी-पष्चिमी बिहार के 265 छोटे एवं मझोले किसान परिवारों ने बाढ़ अनुकूलित सब्जी उत्पादन विकसित करने की ओर अग्रसर होकर एक नये एवं सुरक्षित रास्ते की तलाष की है। बहुस्तरीय खेती तकनीक अपनाकर सब्जी उत्पादकों ने एक ही खेत से एक ही समय में दो से तीन फसलें प्राप्त की हैं और अपने लाभ को दुगुना से भी अधिक किया है।


पूर्वी उत्तर प्रदेष और पष्चिमी बिहार के अधिकांष भागों सहित सम्पूर्ण मध्य गंगा का मैदानी भाग, अच्छी बारिष (औसतन 1200 मिमी0 वार्षिक वर्षा), गंगा, घाघरा, राप्ती जैसी बारहमासी नदियों और उर्वर मृदा होने के बावजूद, क्षेत्र में केवल रबी फसलों की ही खेती होने के कारण एकल फसली खेती गतिविधियां प्रमुख हैं। निरन्तर आने वाली बाढ़ अथवा निचली भूमि में लम्बे समय तक जल – जमाव होने के कारण खरीफ की फसल को हमेषा नुकसान उठाना पड़ता है। वर्षा आधारित आजीविका पर अत्यधिक निर्भरता, अत्यधिक मात्रा (80 प्रतिषत से अधिकद्ध में) छोटे एवं सीमान्त किसानों का होना, छोटी जोत भूमि (84 प्रतिषत से अधिक भूमि का आकार एक हेक्टेयर से भीद्ध) का होना तथा कृषि में मषीनीकरण की सीमित संभावना आदि इन सभी कारणों ने यहां के लोगों की नाजुकता बढ़ाई है और इन्हें खराब मानव विकास सूचकांकों का प्रतिनिधित्व करने हेतु मजबूर किया है। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन थ्रेषहोल्ड एवं तीव्र जलीय – मौसम सम्बन्धी आपदाओं ने क्षेत्र में लोगों के लिए आपदाओं के संकट को और बढ़ाया है तथा लोग गरीबी और ऋण के दुष्चक्र में फंसने को मजबूर हुए हैं।

क्षेत्र की उपरोक्त समस्याओं पर विचार करते हुए, नवीन तकनीकों को अपनाकर फसल नुकसान के प्रभावों को कम करने तथा छोटे एवं मझोले किसानों के शुद्ध आय को बढ़ाने के उपर काम करना महत्वपूर्ण हो गया। हमारे देष में लघु एवं सीमान्त किसानों का प्रतिषत बहुत अधिक है, फिर भी उनके पास कम खेत होने के कारण उन्हें देष की अर्थव्यवस्था के वास्तविक योगदान देने वाले के रूप में मान्यता नहीं दी जा रही है हालांकि वे आजीविका प्रदान करते हैं। देष को आत्मनिर्भर बनाने के अभियान में, आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए लघु एवं सीमान्त किसानों की भूमिका को समझना महत्वपूर्ण होगा और उनके छोटे खेतों को अधिक लाभप्रद एवं उत्पादक बनाने के लिए ठोस प्रयास किये जाने होंगे।

प्रथम दृष्टया, इस लक्ष्य को प्राप्त करना चुनौतीपूर्ण कार्य प्रतीत होता है, फिर भी अपने स्मार्ट प्रक्षेत्र नियोजन एवं बहुस्तरीय खेती प्रणाली के माध्यम से उचित फसल संयोजनों को अपनाकर इन किसानों ने इसे सिद्ध कर दिया है।

तकनीक

बहुस्तरीय खेती प्रणाली खेती की कोई नयी तकनीक नहीं है (देखें बाक्स 1) किसान इसे लम्बे समय से कर रहे हैं। लेकिन उचित फसल संयोजनो (सब्ज़ियों की फसल) को अपनाकर स्थानीय ज्ञान का सम्मिश्रण करते हुए इस तकनीक को उन्नत बनाया गया है, जिससे जल – जमाव तथा बाढ़ जैसी परिस्थितियों में इनकी जीवित बने रहने की क्षमता बढ़ जाती है और पूरी फसल नुकसान का जोखिम कम हो जाता है।

यह तकनीक स्थान एवं समय प्रबन्धन पर जोर देती है। यह स्मार्ट प्रक्षेत्र नियोजन और जड़ों की गहराई, परिपक्वता अवधि, सूर्य के प्रकार की मांग और पौधों की लम्बाई आदि में विभिन्नता के साथ सब्ज़ियों के उचित फसल संयोजन के चयन पर जोर देती है। भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा सहायतित कोर सपोर्ट परियोजना के अन्तर्गत गोरखपुर के कैम्पियरगंज तथा जंगल कौड़िया विकास खण्ड एवं बिहार के पष्चिमी चम्पारण के नौतन प्रखण्ड में खेती की इस तकनीक का प्रयोग किया गया। इस तकनीक ने न सिर्फ किसानों के लिए भूमि का अधिकतम एवं इष्टतम उपयोग करने का मार्ग प्रषस्त किया है, वरन् इसने किसानों के लिए अपनी खेती में लागत कम करने का तथा अपनी आमदनी को दुगुना से अधिक करने का रास्ता भी खोल दिया है।

बाक्स 1: बहुस्तरीय खेती

उर्ध्वाधर एवं बहुस्तरीय खेती में उचित फसल संयोजनों को अपनाकर उर्ध्वाधर, क्षैतिज एवं जमीन के नीचे की फसलों को लगाकर खेत की जमीन का तथा पौध के विकास, परिपक्वता अवधि एवं फल आने की अवस्था को ध्यान में रखकर समय प्रबन्धन करते हुए भूमि का अधिकतम एवं यथेष्ट उपयोग किया जाता है। इस खेती प्रणाली में, पहला स्तर भूमि के नीचे की सतह है, जहां कन्द वाली फसलों के उत्पादन को बढ़ावा दिया जाता है। द्वितीय स्तर पर, जमीन की सतह है, जहां विभिन्न प्रकार की पत्तेदार एवं फल वाली सब्ज़ियों को उगाया जाता है, जबकि तृतीय स्तर पर, सामान्यतः जमीन से 8 फीट की उंचाई तक बांस का मचान तैयार करके लतादार सब्ज़ियां उगायी जाती हैं। खेती की इस तकनीक से शुद्ध बोये गये क्षेत्रफल में वृद्धि होती है, लागत में कमी आती है और सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि मृदा की उर्वरता समृद्ध होने के साथ-साथ मृदा के जैविक पोषक तत्वों में वृद्धि होती है।

यद्यपि, सब्जी-आधारित बहुस्तरीय खेती एक श्रम सघन तकनीक है, जिसमें नियमित रूप से निगरानी करने और प्रक्षेत्र स्तर पर स्मार्ट नियोजन करने के साथ ही साथ उचित फसल चयन आवष्यक होता है। यदि यह कार्य समुचित तरीके से नहीं किया जाता है तो इससे फसलों के उत्पादन और समग्र लाभ के अन्तर पर प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त, बांस आधारित मचान आदि तैयार करने पर प्रति एकड़ 25 हजार की अतिरिक्त लागत की आवष्यकता होती है। फिर भी, यह एक बार लगने वाली लागत होती है और एक बार तैयार किया गया मचान तीन से चार वर्ष से अधिक समय तक के लिए रहता है।

पहल

उपयुक्त फसल संयोजन के साथ बहुस्तरीय खेती की पहल का प्रारम्भ वर्ष 2019 में गोरखपुर और पष्चिम चम्पारण में 3 एकड़ भूमि पर किया गया। शोध दल ने स्थानीय स्तर पर उगायी जाने वाली सब्ज़ियों की एक व्यापक सूची तैयार की और लतादार, कन्द और पत्तेदार सब्ज़ियों के संयोजन को लेकर 6 फसलों से 3 जोड़े तैयार किये। फसलों का यह पृथक्करण मृदा के पी एच मान, फसलों के जड़ों की गहराई, सूर्य की रोषनी की उपलब्धता एवं अवधि, फसल की प्रकृति/विषेषता, जलजमाव के प्रति फसल की सहनषीलता स्तर एवं पौधों की जीवन चक्र जैसे-बुवाई का समय, पौधरोपण, विकास एवं फसल की परिपक्वता अवधि आदि मानकों पर आधारित था।

फसल संयोजन का परीक्षण

छह फसलों से फसल संयोजनों के तीन जोड़े तैयार किये गये। बुवाई के समय, पौधों के विकास की अवधि, कटाई के समय एवं सबसे प्रमुख विकास के लिए सूर्य के प्रकाष की मांग के आधार पर इन सभी 6 फसलों चयन रणनीतिक रूप से किया गया।

1. करैला और आलू की फसल:

यह एक लतादार (करैला) और कन्द फसल (आलू) का संयोजन है। करैला एक 6 माह (अगस्त से फरवरी) की फसल है, जबकि आलू 4 माह की फसल है। करैला की बुवाई अगस्त के माह में की जाती है और इसका वानस्पतिक विकास अक्टूबर तक होता है। नवम्बर – दिसम्बर में, जैसे ही वातावरण में नमी कम होने लगती है, इसके पत्ते गिरने लगते हैं और जमीन की सतह पर सूर्य की रोषनी पर्याप्त मात्रा में मिलने लगती है। इससे दूसरी फसल लेने का एक अवसर प्राप्त होता है। करैला की फसल के जीवन चक्र की प्रकृति पर विचार करने के बाद, आलू एक ऐसी उच्च मांग वाली फसल है, जिसे करेला के साथ लिया जा सकता है। इसलिए, किसानों ने अपने उसी करैला के खेत में आलू की बुवाई कर दी। नवम्बर एवं दिसम्बर के दौरान करेले की मचान के नीचे भी आलू की फसल को विकास करने के लिए पर्याप्त धूप मिलती है। आलू की खुदाई फरवरी-मार्च में होती है। इस प्रकार, स्थान और समय का समुचित प्रबन्धन करते हुए, किसान एक अतिरिक्त फसल ले सकता है और इस प्रकार अतिरिक्त आमदनी प्राप्त कर सकता है।

एकल फसल के सापेक्ष इस फसल संयोजन से होने वाले शुद्ध लाभ का अनुमान लगाने के लिए एक-एक एकड़ के तीन प्रक्षेत्रों का चयन किया गया। दो खेतों में करैला और आलू की एकल खेती की गयी और एक खेत में बहुस्तरीय खेती तकनीक का उपयोग करते हुए करैला व आलू दोनों के संयोजन की खेती की गयी। करैला और आलू की खेती एक एकड़ के परिक्षेत्र वाले दो अलग – अलग खेतों में करने पर निवेष लागत लगभग रू0 59,000.00 आयी। लेकिन जब बहुस्तरीय खेती तकनीक से इन दोनों फसलों की एक साथ खेती की गयी तो इसकी उत्पादन लागत उल्लेखनीय रूप से घटकर रू0 38,380.00 हो गयी। इस प्रकार, बहुस्तरीय खेती प्रणाली में, करैला और आलू की खेती एक साथ करने पर निवेष लागत में 35 प्रतिषत तक कमी आयी और उत्पादन में 45.51 प्रतिषत तक की वृद्धि हुई। इस प्रकार, इस फसल संयोजन में लागत- प्राप्ति एवं शुद्ध आय, करैला और आलू की एकल फसल की तुलना में अत्यधिक बेहतर रही, जिसे तालिका 1 में प्रदर्षित किया गया है।

तालिका 1: एकल फसल व आलू + करैला के संयोजन में निवेष – प्राप्ति लागत व लाभ का तुलनात्मक विष्लेषण

फसल उत्पादन /एकड़  (कुन्तल में) निवेश लागत
(रू0 में)
आय
(रू0 में)
शुद्ध लाभ
(रू0 में)
करैला  56.70 29,880.00 56,700.00 26,900.00
आलू 98.92 29,200.00 49460.00 20,260.00
करैला + आलू 122.60 38,380.00 82,474.00 44,095.00

 

2. कुन्दुरू और अरवी

स्थानीय तौर पर कुन्दुरू के नाम से जानी जाने वाली यह एक पारम्परिक लतादार सब्जी है, जो इस क्षेत्र में नगदी फसल के रूप में उगायी जाती है। कुन्दरू के साथ अरवी के संयोजन की खेती का सफल परीक्षण एक एकड़ खेत में किया गया। चूंकि ये दोनों फसलें खरीफ ऋतु में ली जाती हैं। अतः जब इस फसल संयोजन का चयन किया गया, उस समय इनके वानस्पतिक विकास के लिए जल की सहनषीलता और सूर्य के रोषनी की उपलब्धता के मानदण्ड पर प्रमुखता से विचार किया गया। कुन्दरू एक जल सहनषील फसल है, जो जल – जमाव की स्थिति में 15 -18 दिनों तक जीवित बनी रह सकती है, जबकि अरवी एक कन्द वाली फसल है, और इसे अधिक धूप की आवष्यकता नहीं होती है। इन दोनों फसलों का फसल कैलेण्डर एवं निवेष – प्राप्ति था लाभ का अन्तर तालिका सं0 2 में दिया गया है। इस परीक्षण में, एक अतिरिक्त फसल के साथ संयोजन से लाभ में वृद्धि होती है। इसके साथ ही बाढ़ की स्थिति में कुन्दरू की जड़ें क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण उत्पादन में होने वाली क्षति की भरपाई भी हो जाती है। अरवी और कुन्दरू की खेती एक साथ करने में लाभ का अन्तर बढ़ जाता है। दोनों फसलों की अलग – अलग एकल खेती करने की तुलना में दोनों की खेती एक साथ करने पर लाभ का अन्तर बढ़कर क्रमषः 75.9 एवं 92.5 प्रतिषत हो जाता है।

तालिका 2: एकल फसल व कुन्दरू + अरवी के संयोजन में निवेष-प्राप्ति लागत व लाभ का तुलनात्मक विष्लेषण

फसल उत्पादन /एकड़  (कुन्तल में) निवेश लाग
(रू0 में)
आय
(रू0 में)
शुद्ध लाभ
(रू0 में)
अरवी 32.60 28,550.00 48,900.00 20,350.00
कुन्दरू 42.50 27,500.00 42,500.00 15,000.00
कुन्दरू + अरवी 69.25 33,840.00 81,625.00 47,785.00

 

3. लौकी और बन्दगोभी:

तीसरा सफल संयोजन एक पारम्परिक लतादार फसल लौकी और इस क्षेत्र में सघन रूप से उगाई जाने वाली एक पत्तेदार फसल बन्दगोभी का रहा। विकास और फलत के लिए इन दोनों ही फसलों को अत्यधिक धूप की आवष्यकता होती है। पुनः जब इन फसलों का चयन किया गया तो फसल की बुवाई का समय एवं सूर्य की रोषनी चयन का महत्वपूर्ण आधार रहे। लौकी की फसल की रोपाई जून-जुलाई माह में की जाती है और इसका वानस्पतिक विकास अगस्त व सितम्बर महीने में होता है। यद्यपि नवम्बर-दिसम्बर में हवा में नमी की कमी के कारण, इसकी पत्तियां झड़ जाती हैं। इसलिए लौकी की मचान के नीचे पत्तागोभी की फसल की वृद्धि के लिए पर्याप्त धूप मिलती है। किसान पहले से तैयार की गयी नर्सरी से नवम्बर के अन्त में पत्तागोभी के पौधों की रोपाई कर देते हैं। दिसम्बर – जनवरी – फरवरी के दौरान पत्तागोभी की तुड़ाई की जाती है। इसलिए बहुस्तरीय खेती दोनों फसलों की उपज प्राप्त करने और भूमि की प्रति इकाई से होने वाले लाभ में वृद्धि करने में मदद करती है।

तालिका 3: एकल फसल व लौकी + बन्दगोभी के संयोजन में निवेष – प्राप्ति लागत व लाभ का तुलनात्मक विष्लेषण

फसल उत्पादन / एकड़ (कुन्तल में) निवेश लागत
(रू0 में)
आय
(रू0 में)
शुद्ध लाभ
(रू0 में)
लौकी  53.50 28,186.00 53,500.00 25,314.00
बन्दगोभी 120.00 33,800.00 60,000.00 26,200.00
लौकी + बन्दगोभी 145.00 40,360.00 96,800.00 56,440.00

 

प्रभाव:

किसानों के लाभ को बढ़ाने में बहुस्तरीय खेती प्रणाली में उपरोक्त उपयुक्त फसल संयोजनों ने किसानों के लाभ में वृद्धि करने में सहायता प्रदान की है। साथ ही, उन्होंने कटाई के समय को भी बढ़ाया है, जिससे एक लम्बे समय तक किसानों को नियमित आय मिलती रहे। इस तकनीक के निम्नवत् लाभ हैं –

  • प्रति इकाई भूमि के क्षेत्र का उत्पादन बढ़ जाता है।
  • बाजार से होने वाली आय का लम्बा प्रसार होता है।
  • मृदा पोषक तत्वों का यथेष्ट उपयोग होने से मृदा नमी संरक्षित होती है।
  • भूमि समतुल्य अनुपात उच्च होता है।

जैसाकि विभिन्न परीक्षणों में देखा गया है, विभिन्न कारकों जैसे – संसाधनों का बेहतर उपयोग, उर्वरकों, कीटनाषकों, सिंचाई एवं श्रम में लगने वाली लागत आवष्यकताओं में ह्रास एवं बाढ़ /जल – जमाव के कारण होने वाले नुकसान में कमी करते हुए फसल संयोजन और बहुस्तरीय खेती ने किसानों की निवेष लागत को कम करने तथा लाभ का प्रतिषत बढ़ाने में मदद की है। इसने बेहतर शुद्ध लाभ प्रदान किया है और भूमि समतुल्य अनुपात को बढ़ाया है, जिससे किसानों को खेती से अपनी आय बढ़ाने में मदद मिली है। उपरोक्त विष्लेषण के आधार पर, यह स्पष्ट है कि सब्जी आधारित बाढ़-अनुकूलित बहुस्तरीय खेती तकनीक अधिक लाभदायक है। इससे होने वाले लाभों को इस प्रकार देखा जा सकता है।

  • किसान अपने एक ही फसल से एक साथ दो या दो से अधिक फसल ले सकते हैं। इस प्रकार, प्रत्येक संयोजन से एक ही खेत से उच्च लाभ (115 प्रतिषत से 147 प्रतिषत के बीच) होता है।
  • एक ही सिंचाई, खाद, निराई – गुड़ाई से दोनों फसलों की जरूरतें पूरी होती हैं। इस तकनीक से औसतन अतिरिक्त निवेष लागत में 33 प्रतिषत तक की कमी आती है, जिससे लाभ का अन्तर बढ़ जाता है।
  • बहुस्तरीय खेती में विविधता को शामिल करने से मृदा की गुणवत्ता एवं पोषक तत्वों में सुधार होता है। साथ ही, एक ही समय में एक ही खेत से बहुत सी फसलें प्राप्त होने से, बीमारियों एवं संक्रमण से प्रभावित होने की संभावना भी कम हो जाती है।

गोरखपुर जनपद के कैम्पियरगंज विकासखण्ड के सूरस गांव में रहने वाले बीरबल एक सब्जी उत्पादक लघु सीमान्त किसान हैं। वह मुख्य रूप से अपने 0.18 एकड़ खेत में सब्ज़ियों की खेती करते हैं। वह नेनुआ, करैला, बोड़ा, बैगन, तरोई और टमाटर उगाते हैं। वर्ष 2020-21 में इन्होंने पहली बार अपने 0.18 एकड़ खेत में बहुस्तरीय खेती पद्धति से सब्ज़ियों की खेती की। इन्होंने जमीन की सतह पर बोड़ा तथा मचान पर करैला की खेती की। इन्होंने अपने खेत के चारों तरफ नेनुआ के पौधों को लगाया। इस प्रकार, बीज, खेत की तैयारी एवं सिंचाई आदि पर रू0 5,870.00 एवं बांस से मचान बनाने में रू0 4500.00 का खर्च आया।

वर्ष 2020 में मार्च से मई तक लॉकडाउन लग जाने के बावजूद, बीरबल कहते हैं, ‘‘पिछले तीन माह में मैंने रू0 5890.00 का बोड़ा और 13,970.00 का करैला बेचा।’’ इन्होंने 10,370.00 की लागत लगाकर दोनों फसलों से कुल रू0 19.860.00 की आय अर्जित की। इस प्रकार इनकी शुद्ध आय रू0 9,490.00 थी, जो निवेष लागत की 91 प्रतिषत से अधिक थी। बीरबल के आय की तुलना उनके पड़ोसी किसान श्री पैकरन से की गयी, जिन्होंने अपने 0.18 एकड़ खेत में केवल करैला लगाया था और जिस पर इनकी लागत रू0 11,500.00 आयी थी, इन्होंने देखा कि इनको बेहतर उत्पादन मिला और रू0 16,000.00 का करैला बेचा। फिर भी, जब तुलना की गयी तो पाया गया कि एक ही आकार के खेत से बीरबल ने पैकरन की अपेक्षा 52.37 प्रतिषत अधिक लाभ प्राप्त किया है।

निष्कर्ष

यह तकनीक भारत – गंगा ब्रम्हपुत्र मैदानों के उन सभी लघु एवं सीमान्त किसानों के सर्वाधिक उपयुक्त है, जिनके पास खेत में मषीनीकरण की बहुत कम गुंजाइष है। प्रारम्भ में, इस तकनीक का प्रारम्भ 6 सब्ज़ियों के संयोजनों के साथ उत्तर प्रदेष के गोरखपुर जिले के कैम्पियरगंज एवं जंगल कौड़िया विकास खण्ड तथा बिहार के पष्चिमी चम्पारण के नौतन प्रखण्ड के गांवों में 9 किसानों के साथ किया गया था। दो वर्षों में, गोरखपुर एवं पष्चिमी चम्पारण दोनों जिलों में 265 किसान इस तकनीक को सब्जी की खेती में अपना रहे हैं। अब किसान बाढ़ एवं जल-जमाव के कारण होने वाली क्षति को कम करने तथा अपने लाभ को बढ़ाने के लिए अपने खेतों और भी तरह के संयोजनों को अपना रहे हैं।

आभार

कोर परियोजना के अन्तर्गत लघु एवं सीमान्त किसानों को लाभ पहुंचाने के उद्देष्य तकनीकों को विकसित करने हेतु वित्तीय सहयोग प्रदान करने के लिए हम भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के सीड डिवीजन का आभार प्रकट करते हैं।

डॉ0 शीराज अ0 वजीह, डॉ0 बिजय कुमार सिंह, अजय कुमार सिंह एवं अर्चना श्रीवास्तव


शीराज़ अ0 वजीह
गोरखपुर एन्वायरन्मेण्टल एक्षन ग्रुप
224, पुर्दिलपुर, एम0जी0 कालेज रोड
गोरखपुर - 273 001, उत्तर प्रदेष, भारत
ई-मेल: geag@geagindia.org
वेबसाइट :www.geagindia.org

Source: Small farmers and safe vegetable cultivation ,

LEISA INDIA, Vol. 22, No. 3, September 2020

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