महामारी के समय में महुआ का मूल्य संवर्धन

Updated on September 4, 2022

महुआ के फूलों व फलों का मूल्य संवर्धन कर विवेकपूर्ण व व्यावसायिक उपयोग किसानों के लिए एक लाभप्रद उद्यम हो सकता है। बहुत से उत्पादों के अलावा, ग्रामीणों को पता चला कि महुआ के फूलों से सैनिटाइजर भी बनाया जा सकता है, जिससे वे महामारी के समय में आत्मनिर्भर बन सकते हैं।


मध्य प्रदेश राज्य के टीकमगढ़ जिले में जंगल के निकट लोगों की रिहाइश है, लेकिन पक्की सड़कों के बढ़ते अतिक्रमण तथा शहरीकरण की उच्च महत्वाकांक्षा के चलते कुछ अवंाछनीय परिवर्तन भी हुए। यद्यपि, यहां पर परम्परागत तौर पर वनोत्पादों पर आधारित आजीविका लोगों की जीवनशैली का एक हिस्सा रहा है, फिर भी ग्रामीण जीवन में होने वाले इन बदलावों के चलते ये अभ्यास बड़ी संख्या में विलुप्त होने के कगार पर हैं। परिणामस्वरूप लोग जीवन जीने के नये रास्तों को अपनाने लगे हैं। इसके साथ ही लम्बे समय से पड़ने वाले सूखा के कारण भी, यहां के लोग आजीविका की तलाश में बड़े शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हुए हैं, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में काम मिलना बहुत कठिन हो गया है।

वन विरासत को पुनर्जीवित करना
जिले के अन्दर आने वाला पूरा क्षेत्र पारम्परिक रूप से वन से आच्छादित है और इसमें महुआ, पलाश, टीक एवं तेंदू जैसे आर्थिक महत्व रखने वाले पेड़ों की संख्या बहुतायत में है। महुआ ग्रामीण जनता के लिए आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, परन्तु परम्परागत रूप से यह शराब का एक प्रमुख स्रोत है और गांव वाले सिर्फ शराब के रूप में ही इसके उपयोग को जानते थे, जबकि दूसरी तरफ उनके अनुसार तेंदू के पत्तों का उपयोग बीड़ी बनाने में किया जाता है। आय के स्रोत इन महत्वपूर्ण पौधों के अन्य उपयोगों के बारे में ये आदिवासी समुदाय जागरूक नहीं थे।

इस क्षेत्र में काम करने वाले एक कृषि वैज्ञानिक डॉ0 एल. एम, बाल ने देखा कि, ‘‘बहुतायत मात्रा में होने के बावजूद महुआ के फूलों और फलों को एकत्र करने का तरीका बहुत गन्दा था, उचित तरीके से सुखाया नहीं जाता था और उसके भण्डारण का तरीका भी बिलकुल अवैज्ञानिक था।’’ उन्होंने कहा कि अवैज्ञानिक तरीके से भण्डारण करने से सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाने से यह केवल शराब बनाने और पशु आहार के लिए ही उपयुक्त रह गये। यह भी देखा गया कि प्रसंस्करण के उपर ज्ञान व जानकारी का अभाव होने के कारण, महुआ के फूलों की बिक्री में भी परेशानी हो रही थी। इन समस्याओं के उपर काम करने के लिए, जैवविविधता परिषद, मध्य प्रदेश सरकार के वित्तीय सहयोग से टीकमगढ़ कृषि कॉलेज ने एक परियोजना शुरू की और सूखे महुआ फूलों की वांछित गुणवत्ता प्राप्त करने के लिए उपयुक्त शुष्कीकरण ;माइक्रावेब और सोलर के माध्यम से सूखानेद्ध तथा संरक्षण की विधियों को मानकीकृत किया।

सोलर और माइक्रावेब के माध्यम से सुखाना आदि विभिन्न पद्धतियों के माध्यम से महुआ के फूलों को सुखाने के दौरान शुष्कता की विभिन्न विशेषताओं, प्रभावी नमी प्रसार और रंग आदि के उपर कृषि कॉलेज, टीकमगढ़ की उपकरणों से सुसज्जित जैव रसायन प्रयोगशाला में सघन रूप से शोध किया गया। महुआ के सूखे फूलों के भौतिक रसायनिक गुणों का मूल्यांकन मुख्य रूप से नमी की मात्रा, रंग माप, पुनर्जलीकरण अनुपात और प्रोटीन व कुल शुगर मात्रा को जानने के लिए किया गया। इन सभी अध्ययनों से यह पता चला कि स्थानीय व्यंजनों जैसे- हलवा, खीर, पूड़ी और बर्फी बनाने के लिए महुआ के फूलों को प्राकृतिक मीठे के तौर पर आसानी से परिष्कृत किया जा सकता है। महुआ के सूखे फूलों से विविध प्रकार के खाद्य उत्पादों जैसे- सूखा फूल, कैंडिड फूल, महुआ बार, रेडी-टू-सर्व बेवरेज, स्क्वैश, जैम, लड्डू, केक एवं टाफी आदि तैयार कर ग्रामीणों के समक्ष प्रदर्शित किया गया। प्रयोगशाला में दोहरी आसवन प्रक्रिया के परिणामस्वरूप शराब भी प्राप्त हुई। महुआ से निकलने वाली महक को दूर करने के लिए तुलसी के पत्तों, लेमनग्रास और घृतकुमारी के अर्क का उपयोग किया जाता था।

कोविड 19 – एक अवसर मिला
कोरोना महामारी और लॉक डाउन की अनिवार्यता ने क्षेत्र के प्रवासियों को घर लौटने पर मजबूर कर दिया। आय के किसी भी स्रोत के न होने के कारण, गांव लौटे इन लोगों की स्थिति बहुत दयनीय हो गयी। इसके अतिरिक्त, बहुत छोटी जोत, खेती के प्रति युवाओं की गम्भीर उदासीनता और पानी सहित संसाधनों की कमी ने समस्याओं को और बढ़ा दिया।

इसी समय कृषि महाविद्यालय, टीकमगढ़ के वैज्ञानिकों और छात्रों के एक दल ने इस गांव का भ्रमण किया। भ्रमण के दौरान दल ने यह अनुभव किया कि ग्रामवासी सैनिटाइजर के उपयोग के प्रति बिलकुल भी जागरूक नहीं हैं और न ही उन्हें सैनिटाइजर की उपलब्धता हो रही थी। इसके अलावा, गांव वापस लौटे लोगों के पास आय का कोई स्रोत न होने के कारण भी उनमें गहरी निराशा थी। इस कठिन समय में, कृषि महाविद्यालय, टीकमगढ़ ने स्थानीय स्तर पर और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध महुआ के मूल्य संवर्धन के माध्यम से इन प्रवासियों के लिए आय के स्रोत का एक विकल्प उपलब्ध कराने का प्रयास किया। महाविद्यालय के दल ने न केवल महुआ के वृक्षों की उपयोगिता को खोज कर क्षेत्र में लोगों को आय का स्रोत उपलब्ध कराने हेतु पहल किया, वरन् लोगों को कोविड संक्रमण से बचाने हेतु अल्कोहल आधारित सैनिटाइजर का उपयोग करने के लिए भी जागरूक किया।

महाविद्यालय के शोध दल ने महुआ से सैनिटाइजर बनाने एवं उसके विपणन के माध्यम से ग्रामीण युवाआंे को रोजगार का अवसर उपलब्ध कराने में पहल की। इस क्रम में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर गांव वालों से कुल 300 कुन्तल महुआ की खरीद की गयी और लगभग 60 लीटर महुआ सैनिटाइजर बनाकर गांव वालों के बीच वितरित किया गया। ग्रामीण युवाओं को 100 मिलीलीटर के बोतल में सैनिटाइजर वितरित किया गया। प्रारम्भ में, गोद लिये गये गांवों के युवाओं को प्रशिक्षण देने के माध्यम से महुआ आधारित खाद्य उत्पादों और सैनिटाइजरों को लोकप्रिय बनाने और व्यवसायीकरण करने का काम किया गया। सूखे महुआ को बहुत दिनों तक सुरक्षित बनाये रखने में प्रयोगशाला से भी मदद मिल रही है और इसलिए महुआ का नुकसान बहुत कम हो रहा है और इसकी उपलब्धता पूरे वर्ष बनी रहती है।

प्रभाव
अब गांव के लोग सैनिटाइजर के महत्व को समझने लगे हैं और जागरूक हो गये हैं कि यह उनके आस-पास की चीजों से बना एक सुरक्षात्मक विकल्प है। इसके साथ ही न्यूनतम लागत में स्थानीय स्तर पर उपलब्ध महुआ के फूलों से सैनिटाइजर तथा अन्य मूल्य सवंर्धित उत्पाद बनाकर उसका विपणन करना आय का एक बेहतर स्रोत है। बहुत से गांव वाले न केवल महुआ के फूलों की उपयोगिता की संभावनाएं देख रहे हैं, वरन् वे गिलोय, तुलसी और लेमनग्रास के पौधों को अपने घरों के आस-पास लगाने में भी रूचि दिखा रहे हैं। परियोजना से एक वालण्टियर के तौर पर जुड़े करमरई गांव के अजय यादव का कहना है कि, महुआ से बनी बर्फी और टाफियों को गांव के लोग बहुत ज्यादा पसन्द कर रहे हैं।

बड़े शहरों से वापस लौटे युवा, अब न केवल महुआ के फूलों और फलों को एकत्र करने में रूचि दिखा रहे हैं, वरन् महाविद्यालय के दिशा-निर्देशन में महुआ के मूल्य सवंर्धित उत्पादों को बनाना भी सीख रहे हैं। दयाराम अहिरवार का कहना है कि, अगर महामारी की स्थिति में सुधार होता है, तो भी हमारी बाहर जाकर कमाने की कोई योजना नहीं है। ये मूल्य सवंर्धित उत्पाद न केवल हमें अतिरिक्त आमदनी प्रदान करते हैं, वरन् अपने गांव वापस लौटे किसानों को भी संक्षम और महामारी के समय में आत्मनिर्भर बना रहे हैं।

आज मध्य प्रदश के टीकमगढ़ जिले में जंगल किनारे रहने वाले आदिवासी परिवारों के लिए महुआ के फूलों से मूल्य सवंर्धित खाद्य उत्पाद एवं सैनिटाइजर तैयार कर उनका विपणन करना आय का एक बेहतर स्रोत बन गया है। यह अन्य क्षेत्रों में जंगल किनारे रहने वाले आदिवासी समुदायों के लिए प्रेरणा स्रोत के तौर पर काम कर रहा है और ये समुदाय अपने क्षेत्र में उपलब्ध वन आधारित उत्पादों के मूल्य संवर्धन से आय अर्जन की दिशा में संभावनाएं तलाश रहें हैं।

योगरंजन, ललित मोहल बाल, दिनेश कुमार, आयुषी सोनी


योगरंजन
वैज्ञानिक ;बायोटेक्नालॉजीद्ध
ई-मेल: yogranjan@gmail.com

ललित मोहल बाल
वैज्ञानिक ;पोस्ट हार्वेस्ट तकनीकद्ध
ई-मेल: lalit.bal@gmail.com

दिनेश कुमार
वैज्ञानिक ;पशु पोषणद्ध
ई-मेल: ातण्कपदमेी7/हउंपसण्बवउ
कृषि महाविद्यालय, टीकमगढ़
मध्य प्रदेश - 472 001, भारत

आयुषी सोनी
रिसर्च स्कॉलर
कृषि महाविद्यालय, ग्वालियर
मध्य प्रदेश - 474 011, भारत
ई-मेल:ayushisoni2351997@gmail.com


Source: Value addition, LEISA India, Vol.23, No.2, June 2021

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