भास्कर सवे: प्राकृतिक खेती के गांधी

Updated on June 2, 2022

‘‘प्राकृतिक खेती के गांधी’’ के तौर पर प्रशंसनीय स्व0 भास्कर सवे ने जैविक खेती की तीन पीढ़ियों को जैविक खेती हेतु प्रोत्साहित किया और सलाह दिया। उनकी खेती और शिक्षा देने के तरीके में प्रकृति के साथ उनके सहजीवी सम्बन्धों के उपर गहरी समझ शामिल थी, जिसे वे इच्छुक लोगों के साथ हमेशा बहुत खुशी से और बहुत उत्साहपूर्वक साझा करते थे। वर्ष 2010 में, पूरे विश्व स्तर पर जैविक किसानों एवं अभियानों के लिए एक बड़े मंच द इण्टरनेशनल फेडरेशन ऑफ आर्गेनिक एग्रीकल्चर मूवमेण्ट ;आईएफओएएमद्ध ने भास्कर सवे को ‘‘वन वर्ल्ड अवार्ड फार लाइफटाइम अचीवमेण्ट’’ पुरस्कार से पुरस्कृत किया।


दक्षिणी-तटीय गुजरात में, वलसाड़ जिले में तटीय हाइवे के निकट स्थित गांव देहरी में भास्कर सवे का एक 14 एकड़ का बगीचा ‘‘कल्पवृक्ष’’ है। लगभग 10 एकड़ में मुख्य रूप से नारियल और चीकू और कुछ मात्रा में अन्य प्रजातियों का एक मिश्रित प्राकृतिक बागीचा है। लगभग 2 एकड़ में मौसमी फसलों की खेती पारम्परिक चक्रानुसार जैविक विधि से की जाती है। शेष भाग में नारियल की नर्सरी उगाने के लिए है, जिसकी बहुत मांग हैं। खेत से सभी पहलुओं से प्राप्त होने वाली उपज की मात्रा, पोषण गुणवत्ता, स्वाद, जैव विविधता, पारिस्थितिकी स्थाईत्व, जल संरक्षण, उर्जा, दक्षता और आर्थिक लाभप्रदता, किसी भी रसायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के उपयोग वाले खेत से अधिक है जबकि विशेषकर कटाई के लिए लगने वाले मानव श्रम पर आने वाली लागत न्यूनतम है और बाहरी निवेश प्रायः शून्य है।

कल्पवृक्ष में प्राकृतिक प्रचुरता

भास्कर सवे के बगीचे के गेट से अन्दर घुसने पर लगभग 20 कदम चलने के बाद एक बोर्ड लगा है, जिस पर लिखा है- प्रकृति का मूलभूत नियम आपसी सहयोग है।’’ जो प्राकृतिक खेती के दर्शन और अभ्यासों का एक सरल एवं संक्षिप्त परिचय है। इसके आगे बगीचे में जैसे-जैसे अन्दर चलते जायेंगे, अन्य बहुत से विचारणीय सूत्र, सूत्र वाक्य आपका ध्यान आकर्षित करेंगे। प्रकृति, खेती, स्वास्थ्य, संस्कृति और आध्यात्मिकता पर आधारित इन सभी सूत्र वाक्यों में भास्कर भाई का वर्षों से एकत्र किया गया अनुभव/ ज्ञान समाहित है।

कल्पवृक्ष अपनी उच्च उपज के लिए किसी का भी ध्यान आकर्षित करता है और यह किसी भी रसायनों का उपयोग कर आधुनिक खेती से प्राप्त उपज को मात देता है। यह हर समय आसानी से देखा जा सकता है। प्रत्येक पेड़ से प्राप्त होने वाले नारियलों की संख्या शायद पूरे देश में सबसे अधिक है। कुछ ताड़ एक वर्ष में 400 से भी अधिक नारियल की उपज देते हैं जबकि औसत 350 के करीब है। इसी तरह लगभग 40-45 वर्ष पहले प्रचुर मात्रा में चीकू के पौधे लगाये गये थे जिनसे प्रत्येक वर्ष प्रति वृक्ष लगभग 300 किग्रा0 स्वादिष्ट फल प्राप्त होते हैं।

इसके अतिरिक्त बाग में बहुत संख्या में केले, पपीता एवं सुपारी के पौधे उगे हैं। साथ ही कुछ मात्रा में खजूर, सहजन, आम, कटहल, ताड़, कस्टर्ड बनाने वाला सेब, जामुन, अमरूद, अनार, नीबू, चकोतरा, महुआ, इमली, नीम, गूलर के पेड़ लगे हुए हैं। इनके साथ ही, बांस और विभिन्न छोटी झाड़ियों जैसे- करीपत्ता, क्रोटन, तुलसी इत्यादि के अतिरिक्त काली मिर्च, पान का पत्ता, फल आदि की लताएं भी लगी हुई हैं।

चावल की एक लम्बी, स्वादिष्ट एवं उच्च उपज देने वाली प्रजाति नवाबी कॉलम, कई प्रकार की दालें, ठण्डी की गेंहूं एवं कुछ सब्ज़ियां तथा कन्द आदि भी उनके दो एकड़ प्लॉट में मौसमी चक्रानुसार उगायी जाती हैं। इस प्रकार इनके खेत से इनका कुछ मिल जाता है, जो इस स्व-स्थाई किसान के परिवार एवं कभी-कभी आने वाले मेहमानों के लिए पर्याप्त होता है। अधिकांश वर्षों में, अपने उपभोग से अधिक चावल होने पर ये उसे अपने रिश्तेदारों अथवा मित्रों को दे देते हैं, जो इसके बेहतर सुगन्ध एवं गुणवत्ता की प्रशंसा करते हैं।

भास्कर सवे के खेत में विविध प्रकार के पौधे मिश्रित व घनी वनस्पतियों के रूप में एक साथ पाये जाते हैं। उनके खेत का एक छोटा टुकड़ा शायद ही कभी सूर्य, हवा या बारिश के सीधे सम्पर्क में आता हो। चीकू के वृक्षों से बहुत गहरी छाया वाले स्थानों पर म्ृदा को ढंकते हुए पत्तियों से एक गुदगुदा कालीन सा बना रहता है। जबकि जहां पर कुछ धूप आती है, वहां पर विभिन्न प्रकार की घासें उग आती हैं।

जमीन के उपर पत्तियों व फसल अवशेषों की एक मोटी परत मृदा के सूक्ष्म-जलवायु के लिए एक बेहतर मॉडरेटर का काम करता है। भास्कर सवे कृषि में इसकी महत्ता को समझते हुए इस पर जोर देते हुए कहते हैं, ‘‘एक बेहद गर्म दिन में पौधों से प्राप्त छाया अथवा पत्तियों आदि से जमीन पर मल्चिंग, मृदा की सतह को थोड़ा ठण्डा और नम रखती है। इसी प्रकार अत्यधि जाड़े की रातों में, यह मृदा परत एक कम्बल की तरह काम करती है और पूरे दिन भूमि को गर्म रखती है। सघन वनस्पतियों के होने से आर्द्रता भी उच्च रहती है और वाष्पीकरण में बहुत कमी आती है। परिणामतः सिंचाई की आवश्यकता बहुत कम होती है। इन परिस्थितियों में मृदा के बहुत से छोटे मित्र कीट एवं सूक्ष्म-जीवाणु पनपते हैं।’’

उनके 10 एकड़ के बाग से लगातार फल मिल रहा है और औसतन प्रति एकड़ प्रति वर्ष 15000 किग्रा0 से उपर फल की प्राप्ति होती है (पिछले 15-20 वर्षों में इस क्षेत्र में औद्योगिकीकरण के विकास से उत्पन्न प्रदूषण के कारण उपज में कमी आयी है)। पोषण मूल्य के मामले में, यह पंजाब और हरियाणा तथा देश के अन्य भागों में अत्यधिक विषाक्त रसायनों का उपयोग कर उगाये गये भोजन से कई गुणा अधिक बेहतर होता है।

प्रकृति के जुताई करने एवं उर्वरता निर्माण करने वाले

एक शताब्दी पहले चार्ल्स डार्विन ने कहा था कि, ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं कि, दुनिया के इतिहास में कंेचुओं से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका किसी भी जीव की नहीं है।’’ भास्कर सवे इस बात को पुष्ट करते हैं। वे कहते हैं, ‘‘एक किसान, जो अपने खेतों पर केंचुओं और मिट्टी खोदने वाले सूक्ष्म जीवों के प्राकृतिक उन्नयन में सहयोग करता है, वह और उसका परिवार समृद्धि की राह पर वापस आता है।’’ मिट्टी की खुदाई करने वाले अन्य विभिन्न जीव जैसे- चींटियां, दीमक, सूक्ष्म जीवों की बहुत सी प्रजातियां आदि भी मृदा की भौतिक स्थितियों में तथा पौध पोषणों के पुनर्चक्रीकरण में सहयोग देती हैं और कल्पवृक्ष के प्राकृतिक फार्म में कदम-कदम पर ऐसे सहायक जीव देखे जा सकते हैं।

इसके विपरीत, आधुनिक कृषि पद्धतियां मृदा के जैविक जीवन के लिए विनाशकारी सिद्ध हुई हैं। मृदा की प्राकृतिक उर्वरता को बरबाद करके, हम वास्तव में अधिक से अधिक बाहरी निवेशों और अपने लिए निरर्थक श्रम हेतु कृत्रिम ‘‘आवश्यकता’’ का निर्माण कर रहे हैं जबकि इसका परिणाम बहुत ही निम्न और प्रत्येक तरीके से बहुत अधिक खर्चीला होता है। भास्कर सवे जोर देकर कहते हैं, ‘‘जीवित मृदा, एक जैविक एकता है और यह जीवन का एक पूरा जाल है, जिसे सुरक्षित, संरक्षित एवं पोषित करना चाहिए और इसका एकमात्र तरीका प्राकृतिक खेती है।’’

मित्र के रूप में खर-पतवार

प्रकृति में, छोटा-बड़ा प्रत्येक जीव एवं पौधे पारिस्थितिकी प्रणाली को क्रियाशील बनाये रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रत्येक खाद्य श्रृंखला का एक अविभाज्य अंग है।

खेत की फसलों में खर-पतवारों के प्रकोप की स्थितियांे के समाधान के लिए एकमात्र बुद्धिमानीपूर्ण और स्थाई ‘‘जड-इलाज’’ रसायनों और गहरी जुताई को बंद करते हुए मिश्रित रोपण और फसल चक्र अपनाना है। जब केवल समस्याग्रस्त खर-पतवार धीरे-धीरे समाप्त हो जायेंगे और मृदा अपने स्वास्थ्य को पुनः प्राप्त कर लेेती है तो ऐसी स्थिति में पुनः खर-पतवार की बढ़त पुनः खाद्य फसलों को दबा सकती है। इसको प्रबन्धित करने का तरीका यह है कि खर-पतवारों (फूल आने से पहले) को पहले से काटकर फसलों के नीचे की मिट्टी पर कम से कम 3-4 इंच मोटा कर लें। मिट्टी में दबे खर-पतवार के बीजों पर सूरज की रोशनी पड़े बिना उनके ताजा अंकुरण को प्रभावी ढंग से रोका जा सकता है।

जब किसान वापस जैविक खेती की तरफ लौटते हैं तो प्रत्येक वर्ष उनके खेतों की मृदा स्वास्थ्य में सुधार होता है। परिणामस्वरूप, फसल का विकास बेहतर होता है और खर-पतवारों का विकास रूक जाता है। प्रारम्भ के 2-3 वर्षों में, खर-पतवार नियंत्रण की कोई आवयकता नहीं होनी चाहिए। तब तक किसानों को खर-पतवारों को काटने और मल्च करने की सलाह दी जाती है।

बिना जड़ों को नुकसान पहुंचाये, जमीन की उपरी सतह पर विकसित खर-पतवारों को काटकर पृथ्वी के उपर ‘‘मल्च’’ के रूप में लिटा देने से मृदा में बहुत तरीके से लाभ होता है। मल्चिंग करने से तेज हवा अथवा बारिश की स्थिति में मृदा का क्षरण बहुत कम होता है, मिट्टी भुरभुरी होती है, वाष्पीकरण कम होता है और सिंचाई की आवश्यकता भी कम होती है। मृदा में वातायन अधिक होने से नमी अवशोषण होता है जिससे गर्मी व ठण्डी का असर कम होता है। मल्च फसलों के लिए पोषण से भरपूर खाद उपलब्ध कराने हेतु उपयोगी केंचुओं एवं सूक्ष्म जीवाश्मों के लिए भोजन आपूर्ति करने का काम भी करता है। इसके अलावा, चूंकि खर-पतवारों की जड़ें जमीन में ही रह जाती हैं, जो मृदा को बांधती रहती हैं और सतह पर गीली घास के रूप में जैविक जीवन में मदद करती हैं, क्योंकि जब जड़ें मृत हो जाती हैं, तब भी मृदा में रहने वाले जीवों के लिए भोजन उपलब्ध कराने का काम करती हैं।

यह भी महत्वपूर्ण है कि घास में फूल आने और परागण से पहले ही उसकी कटिंग एवं मल्चिंग क्रिया कर लेनी चाहिए। यदि किसान बहुत देर करेंगे और और मल्चिंग सामग्री खर-पतवार के बीजों से परागित हो जायेगी तो मल्चिंग किये गये क्षेत्र से उसी खर-पतवारों की एक नयी पीढ़ी बहुत मजबूती से निकल आयेगी।

प्रकृति के अनुरूप खेती के सिद्धान्त

भास्कर सवे कहते हैं, ‘‘प्राकृतिक खेती के चार आधारभूत सिद्धान्त हैं, जो बहुत सरल हैं।’’ ‘‘पहला है, ‘सभी जीवित प्राणियों को जीने का समान अधिकार है।’ ऐसे अधिकार का सम्मान करने के लिए खेती अहिंसक होनी चाहिए।

दूसरा सिद्धान्त यह मानता है कि, ‘प्रकृति में प्रत्येक वस्तु उपयोगी है और जीवन के लिए एक उद्देश्य प्रदान करता है।

तीसरा सिद्धान्त कहता है कि, ‘खेती एक धर्म है, प्रकृति और साथी प्राणियों की सेवा करने का एक मार्ग है।’ इसे शुद्ध धन्धा या धन-उन्मुख व्यवसाय के रूप में नहीं देखना चाहिए। अधिक कमाने का अदूरदर्शी लालच-प्रकृति के नियमों की अनदेखी- हमारे सामने आने वाली लगातार बढ़ती समस्याओं की जड़ है।

चौथा सिद्धान्त, ‘बारहमासी उर्वरता पुनर्जनन का सिद्धान्त है।’ यह बताता है कि हम मनुष्यों को केवल हमारे द्वारा उगायी जाने वाली फसलों के फल और बीजों का अधिकार है। ये फल और बीज पौधों की बायोमॉस उपज का 5 से 15 प्रतिशत हिस्सा तैयार करते हैं। शेष 85 प्रतिशत से 95 प्रतिशत बायोमास फसल अवशेष से मिलता है, जो अपनी उर्वरता को नवीनीकृत करने के लिए या तो सीधे गीली घास के रूप में या खेत जानवरों की खाद के रूप में मिट्टी में वापस जाना चाहिए। अगर यह धार्मिक रूप से पालन किया जाता है तो बाहर से कुछ भी नहीं निवेश देने के बाद भी भूमि की उर्वरता कम नहीं होगी।’’

 

कुछ न करें?
चूंकि आधुनिक विधि से की जाने वाली खेती की तुलना में प्राकृतिक खेती में भौतिक कार्य बहुत कम करना पड़ता है, परन्तु नियमित रूप से ध्यान देना आवश्यक होता है। इसलिए कहा गया है कि, ‘‘एक किसान के कदम उसके पौधों के लिए सबसे अच्छा उर्वरक हैं।’’ विशेष रूप से पेड़ों के मामले में यह कथन पहले कुछ वर्षों में बहुत महत्वपूर्ण है। धीरे-धीरे, जैसे-जैसे पेड़ बड़े होते जाते हैं, किसान का काम कम होता जाता है और अन्त तक उसके पास फल तुड़ाई के अलावा उसके पास और कोई काम नहीं रह जाता है। नारियल के मामले में, भास्कर भाई ने अपने-आप को कटाई से भी दूर कर लिया है। वह नारियल के फलों के पकने और नीचे गिरने का इन्तजार करते हैं। वे केवल जमीन पर गिरे फलों को एकत्र करने का काम करते हैं।

साल-दर-साल कुछ मौसमी फसलों जैसे- चावल, गेंहूं, दलहन, सब्ज़ियां आदि उगाने के लिए ध्यान देना अनिवार्य है। यही कारण है कि भास्कर भाई अपनी फसल उगाने की अपनी विधि को जैविक विधि कहते हैं। जबकि ‘‘कुछ न करें प्राकृतिक खेती’’ केवल पूर्ण परिपक्व वृक्ष फसल प्रणाली के लिए ही कहा जाता है। हालांकि, खेत की फसलों के साथ भी, प्रकृति के श्रेष्ठ ज्ञान का सम्मान करते हुए और जीवों को कम मारते हुए, किसान द्वारा किसी भी हस्तक्षेप को न्यूनतम रखा जाना चाहिए।

खेती के पांच प्रमुख अभ्यास
भास्कर सवे ने पूरे विश्व में किसानों द्वारा सामान्य तौर पर अपनायी जाने वाली गतिविधियों के पांच प्रमुख क्षेत्रों के सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए प्राकृतिक खेती के प्रति अपने दृष्टिकोण के प्रमुख व्यवहारिक पहलुओं को संक्षेपित किया है। ये हैं- जुताई, उर्वरता निवेश, निराई, सिंचाई और फसल सुरक्षा।

जुताई
पेड़ वाली फसलों को लगाने के सन्दर्भ में पौध या बीज लगाने से पहले मिट्टी को भुरभुरी करने के लिए केवल एक बार जुताई की अनुशंसा की जाती है। पौधरोपण के बाद, मृदा का भुरभुरापन और वातायन बनाये रखने का काम पूरी तरह से जीवाश्मों, मृदा खोदने वाले जीवों और पौधों की जड़ों पर छोड़ देना चाहिए।

उर्वरता निवेश
खेत की निरन्तर उर्वरता सुनिश्चित करने के लिए सभी फसल अवशेषों और बायोमॉस का पुनर्चक्रीकरण अनिवार्य है। जहां खेत से उत्पन्न होने वाला बायोमास नहीं मिल सकता, वहां बाहर से जैविक निवेशों को दिये जाने का प्रावधान सहायक हो सकता है। फिर भी, किसी भी तरह के रसायनिक उर्वरकों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।

निराई-गुड़ाई
निराई-गुड़ाई से भी बचना चाहिए। यह केवल तभी करना चाहिए, जब खर-पतवारों की वृद्धि फसलों से अधिक होने लगे, सूर्य की रोशनी को खर-पतवार अवरूद्ध करने लगे। तब ‘‘स्वच्छ खेती’’ के लिए इन्हें जड़ से उखाड़ने के बजाय काटने और मल्चिंग के माध्यम से नियन्त्रित करना चाहिए। खर-पतवार नाशक का प्रयोग निश्चित रूप से नहीं करना चाहिए।

सिंचाई
सिंचाई संरक्षित होनी चाहिए। मृदा की नमी को बनाये रखने के लिए जितना आवश्यक हो, उतनी ही सिंचाई करनी चाहिए। पूर्ण वनस्पति आवरण, बहुस्तरीय को प्राथमिकता देने और मल्चिंग करने से जल की आवश्यकता बहुत कम हो जाती है।

फसल सुरक्षा
प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले प्रीडेटर्स के माध्यम से जैविक नियंत्रण की प्राकृतिक प्रक्रियाओं के उपर फसल सुरक्षा का कार्य पूर्ण रूप से छोड़ देना चाहिए। स्वस्थ मृदा में स्वस्थ, जैविक रूप से उगायी जाने वाली फसलों की पाली संस्कृतियों में कीटों के हमले के प्रति उच्च प्रतिरोधक क्षमता होती है। कोई भी क्षति आमतौर पर न्यूनतम होती है और आत्म-सीमित होती है।

अधिक से अधिक, कुछ गैर-रसायनिक उपायों जैसे नीम का उपयोग, देशी गौमूत्र व पानी का मिश्रण आदि का सहारा लिया जा सकता है। लेकिन यह भी अंततः अनावश्यक है।

इस प्रकार प्रकृति में लौटने से ऐसे कई कार्य, जो मूल रूप से उसके थे, उसके द्वारा होने लगते हैं और आधुनिक कहे जाने वाले किसान की पीठ से एक बहुत बड़ा बोझ उतर जाता है। और भूमि एक बार पुनः उर्वर होने लगती है।

भास्कर सवे कहते हैं, ‘‘अहिंसा, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विकास का आवश्यक चिन्ह है, जो प्राकृतिक खेती के माध्यम से ही संभव है।’’

अन्त में, सवे कहते हैं, ‘‘प्राकृतिक ख्ेाती को अन्नपूर्णा का आर्शीवाद प्राप्त होता है, जो सभी के लिए प्रचुर मात्रा में भोजन की देवी है।’’

यह लेख भरत मनसता द्वारा लिखित और अर्थकेयर बुक्स द्वारा प्रकाशित ‘‘प्राकृतिक खेती की दृष्टि’’ नामक 277 पृष्ठों की किताब से लिया गया है।

भरत मानसत्ता


भरत मानसत्ता
ई-मेल : bharatmansata@yahoo.com

Source: Healthy Horticulture, LEISA India, Vol.23, No.3, September 2021

Recent Posts

कृषि पारिस्थितिकी पर प्रशिक्षण वीडियो: किसानों के हाथ सीखने की शक्ति देना

कृषि पारिस्थितिकी पर प्रशिक्षण वीडियो: किसानों के हाथ सीखने की शक्ति देना

छोटे एवं सीमान्त किसानों के लिए कृषि पारिस्थितिकी ज्ञान और अभ्यासों को उपलब्ध कराने हेतु कृषि सलाहकार सेवाओं को...