भारत में पारम्परिक कृषि-पशु चारागाह प्रणाली के माध्यम से रास्ता बनाना

Updated on March 5, 2022

पशु चारागाह/चराई और कृषि के बीच अर्न्तसम्बन्धों से हरित, पयार्वरणीय दृष्टि से स्थाई एवं वैश्विक अर्थव्यवस्था को परिवर्तित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की संभावना होती है। पूरे देश में पशु-चराई प्रणाली के बहुत से उदाहरणों के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों, स्थानीय जलवायु परिस्थितियों के प्रति अनुकूलन एवं मृदा उर्वरता बढ़ाने में पशुओं से तैयार खादों के कारण आर्थिक एवं पारिस्थितिक मूल्य निर्माण के प्रबन्धन के प्रति उनके ज्ञान पर समझ प्रदान करती है।


पूरे भारत में प्राचीन काल से ही कृषि-पशु चारागाह/चराई प्रणाली का पारिस्थितिकी के साथ अन्तर्सम्बन्ध प्रदर्शित होता है और पशुधन नस्ल आर्थिक व्यवस्था के एक निर्वाह के रूप में उभरा है। देश भर में घूमन्तू चरवाहों ने कृषि के साथ-साथ पारम्परिक चराई व्यवसाय को स्थाईत्व प्रदान करने के लिए किसानों के साथ सम्बन्ध स्थापित किया है। चरवाहों एवं किसानों के आपसी सम्बन्ध स्थानीय अर्थव्यवस्था को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से विकसित हुए हैं, किसानों और चरवाहों को आजीविका के अवसर प्रदान करते हैं और पर्यावरण की दृष्टि से स्थाई होते हैं।

आपसी सम्बन्ध का परिदृश्य

चराई संसाधनों की स्थानिक और अस्थाई उपलब्धता के साथ-साथ विषम मौसमी घटनाओं ने चरवाहों को पूरे देश भर में गतिशील रहने के लिए प्रेरित किया है। बहुत से भारतीय राज्यों में चरवाहों के घूमन्तू रहने स्वरूप के कारण किसानों के साथ पारस्परिक सम्बन्ध हैं। फिर भी, पिछले कुछ वर्षों में देश भर में कृषि के व्यवसायीकरण के कारण यह प्रथा विलुप्त होती जा रही है।

साझा बंधन: पश्चिमी भारत से उपाख्यान

गुजरात के सौराष्ट््र क्षेत्र में चरवाहों को स्थानीय स्तर पर मालधारी-भारवाड़, राबरीज के नाम से जाना जाता है। ये अपने जानवरों के चारा की खोज के लिए राज्य के विभिन्न भागों में घूमते रहते हैं। चारागाह स्रोतों के समाप्त हो जाने के कारण वे चारा के लिए किसानों की खेती पर भी निर्भर करते हैे। खम्भलिया विकासखण्ड में अपने पैतृक गांव से देव कहते हैं, ‘‘अधिकांशतः जब खरीफ फसल ऋतु समाप्त होती है, उस समय कपास की कटाई के बाद खेतों को साफ करने के लिए मजदूरों की आवश्यकता होती है, जबकि हमारे जानवरों को चारा की जरूरत होती है। उस समय हम किसानों के साथ यह अनुबन्ध करते हैं कि हम उनके खेतों को साफ करेंगे और नयी फसली मौसम प्रारम्भ करने के लिए उन्हें उर्वर भूमि उपलब्ध करायेंगे।’’
द्वारिका के राजपारा गांव के एक अन्य दूसरे मालधारी भूपत भाई बूंदिया अक्टूबर अन्त से जून तक लगभग 200 किमी0 की यात्रा करते हैं। वे सम्बन्धों के पीछे के अर्थशास्त्र की व्याख्या करते हुए कहते हैं-‘‘सामान्यतः एक किसान कपास के पौधों को खेत से साफ करने के लिए प्रतिदिन रू0 350 मजदूरी लेता है 5 घण्टे काम करता है। प्रत्येक किसान के पास कम से कम 5 एकड़ खेती होती है। जिसे 10 दिनों में रू0 3500.00 खर्च कराकर वे उसे साफ कराते हैं और अगले सीजन के लिए खेत तैयार कराते हैं। हमारी बकरियां और भेड़ंे पूरा दिन चरती हैं। जानवरों के चरने के बाद हमारे परिवार की महिला सदस्य पौधों को बांध देती हैं और हम उसके लिए अलग से कुछ नहीं लेते हैं।

किसानों और चरवाहों के इस अनूठे बन्धन/सम्बन्ध को पहले से कहीं अधिक मान्यता दिये जाने की आवश्यकता है।
प्रवासी चारागाह समुदाय न केवल आर्थिक स्थाईत्व के लिए ऐसे सम्बन्धों की आवश्यकता व महत्व को समझते हैं, वरन् वे यह भी समझते हैं कि इस तरह के बन्धन से पर्यावरण के लिए व्यवहार्य एक सांस्कृतिक सम्बन्ध को भी बनाये रखने में मदद मिलेगी। जामनगर क्षेत्र में आने वाले सेठ वडाला गांव के एक किसान भीमा भाई का कहना है, ‘‘मैंने 5 मालधारी परिवारों को अपने खेत में ठहरने की अनुमति दी और यह हमेशा से मेरे परिवार द्वारा किया जाता रहा है।’’ सभी के लिए उसकी उपयोगिता पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि ‘‘ये जमीन गोपाल की।’’ ;अर्थात् सभी जमीन भगवान कृष्ण की है।द्ध भीमा भाई कहते हैं कि ये भेड़ें और बकरियां न सिर्फ हमारे खेत से घास चरती हैं, वरन् उसी खेत में मल-मूत्र का उत्सर्जन करने से खाद मिलती है, जिससे मृदा की उर्वरता बनाये रखने में सहायता मिलती है। आगे उनका कहना है कि मालधारी सदस्य किसानों की आवश्यकता अनुसार उन्हें बकरी का दूध उपलब्ध कराते हैं।

आन्ध्र प्रदेश से विश्वास की एक कहानी
आन्ध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले के राप्ताडू मण्डल के किसानों ने आपसी विश्वास के कुछ ऐसे उदाहरण साझा भी किये हैं। कुरूमा समुदाय के अधिकांश भेड़ पालक चारों की खोज में किसानों के खेतों पर आते हैं। इसके बदले में, किसान उन्हें भोजन, आश्रय और कपड़े देते हैं। किसान की भूमि पर इस तरह के भ्रमण और ठहरने की अवधि को किसानों द्वारा अन्य त्यौहारों की तरह ही एक त्यौहार मनाया जाता है, जहां वे कोरालू पेयसम ;बाजरा से बना एक पेय पदार्थद्ध तैयार करते हैं और दिन में एक बार चरवाहों को देते हैं। अनन्तपुर जैसे स्थानों में, जहां चरम जलवायुविक परिस्थितियां बड़े पैमाने पर उत्पन्न होती हैं, वहां पर इस तरह के सम्बन्ध न केवल छोटी जोत के किसानों को सुरक्षा प्रदान करते हैं, वरन् चरवाहों की आजीविका को भी एक व्यवसाय के तौर पर सुरक्षा देते हैं।

हिमालयी क्षेत्र की कथाएं
हिमालयी क्षेत्र के जौनसार-बावर के चरवाहे गर्मियों एवं सर्दियों में अपने जानवरों के लिए चारागाहों की तलाश में लम्बवत (गर्मियों में पहाड़ पर जाते हैं और सर्दियों में पहाड़ से नीचे आते हैं)  यात्रा करते हैं। वे न केवल किसानों के साथ वरन् क्षेत्र के कारीगरों के साथ भी अनूठा बन्धन/सम्बन्ध प्रदर्शित करते हैं। पश्चिमी हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड के जौनसार-बावर के खास चरवाहे अधिकांशतः भेड़ एवं बकरियों का पालन करते हैं। सितम्बर-अक्टूबर में कटाई सीजन के दौरान वे सेब और खुबानी के बगीचों पर निर्भर करते हैं। अधिकांशतः ये पशुपालक किसानों के खेतों पर जाते हैं और वहां अपने जानवरों को चराते हैं। जब वे पहाड़ से नीचे मैदानी क्षेत्र में होते हैं, उस समय वे सर्दियों की तैयारी के लिए अपने जानवरों के फर को काटते हैं। इस बीच, खास चरवाहे अपने पास भेड़ों से कतरे गये कुछ उन अपने पास रखते हैं, जिन्हें वे कोलतास (बुनाई करने वाले कारीगरोंद्) को उनके व्यक्तिगत उपयोग के साथ ही बाजार में बेचने के लिए भी वस्त्र तैयार करने हेतु देते हैं।

जौनसार के गोरछा गांव के स्थानीय निवासी पूरन सिंह चौहान कहते हैं, ‘‘यहां अभी भी प्रत्येक परिवार से एक या दो सदस्य पशु चराई के व्यवसाय में लगे हुए हैं। लेकिन, नगदी आधारित अर्थ-व्यवस्था में वृद्धि होने तथा देहरादून-विकासनगर बढ़ने के साथ, अधिकांश युवा कस्बों व शहरों में चले गये हैं और वर्तमान व्यवसाय पहले की तरह नहीं रह गया है। वह याद करते हैं कि न केवल चरवाहों और किसानों के लिए इस प्रणाली में ह्रास हुआ है, वरन् पशुओं के उन से तैयार बहुत से पारम्परिक उत्पाद जैसे- चौरा ;भेड़ के उन से बना ओवरकोटद्ध खुर्सा ;बकरी के उन से बना गरम जूताद्ध, खारसा ;बकरी के उन से बनी चटाईद्ध तो अब लम्बे समय से उपयोग में नहीं है।

इस तरह के परिवर्तनों ने कृषि के आस-पास की स्थानीय पारिस्थितिकी प्रणाली के साथ सघन रूप से जुड़ाव रखने वाली पारम्परिक संस्कृति को नष्ट किया है। अब इस क्षेत्र के किसानों को जैविक खाद पाने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है और वे अपने खेतों तथा बगीचों में रसायनिक खादों का उपयोग करने के लिए विवश हो रहे हैं। इससे क्षेत्र के हिमालयी पारिस्थितिक प्रणाली को दीर्घकालिक नुकसान हो रहा है।

मान्यता व जुड़ाव की आवश्यकता
जैसा कि हम देखते हैं कि कुछ राज्यों में लोग प्राकृतिक खेती की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं, ऐसी स्थिति में चरवाहा समुदायों का किसानों के साथ जुड़ाव होने से आर्थिक और पर्यावरणीय दोनों लाभ होगा। जुड़ाव होने से किसानों को स्थानीय स्तर पर जैविक खाद पाने में सहायता मिलेगी और चरवाहों को इन खादों के बदले किसानों से जो आय प्राप्त होगी, वह उनकी अतिरिक्त आय होगी। पूरे देश भर से पशु चराई प्रणाली के ये उदाहरण प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन, स्थानीय जलवायुविक परिस्थितियों को अपनाने तथा मृदा उर्वरता बढ़ाने में पशुओं से प्राप्त खादों से निर्मित आर्थिक और पारिस्थितिक मूल्यों पर उनकी ज्ञान प्रणाली के उपर एक समझ प्रदान करते हैं।

पशु चराई और कृषि के बीच अन्तर्सम्बन्धों में एक हरित, पर्यावरणीय स्थाईत्व एवं वैश्विक अर्थव्यवस्था में परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की क्षमता है। ऐसी प्रणालियों और नीतियों को विकसित करने की आवश्यकता है, जिससे सदैव नाजुक एवं अत्यधिक अनिश्चित परिस्थितियों में जीवन-यापन करने वाले चरवाहा समुदायों को मजबूती प्रदान की जा सके।

रितुजा मित्रा, साहिथ गोवर्धनम


रितुजा मित्रा
रिसर्च एसोसियेट
सहजीवन
ई-मेलः rituja@sahjeevan.org

साहिथ गोवर्धनम
कन्सल्टेण्ट
इकोनॉमिक्स सेण्टर ऑफ वर्ल्ड रिसोर्स इन्स्टीट्यूट, भारत
ई-मेल: g.sahith17_mad@

Source: Resilient crop- Livestock system, LEISA India, Vol. 23, No.4, December 2021

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