द्वितीयक कृषि से सशक्त होते मध्य भारत के आदिवासी

Updated on June 3, 2022

कृषि की कार्य क्षमता से सम्बन्धित द्वितीयक कृषि, किसानों की प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता और आय बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान देती है। मूल्य संवर्धन पर ध्यान देकर ‘‘सृजन’’ ने मध्य प्रदेश में सहरिया जनजातियों को उचित एडवायजरी सेवा, व्यवहारिक प्रशिक्षण और बाजार के साथ जुड़ाव करने में सहयोग किया, जिससे उन्हें बेहतर प्राप्ति करने में मदद मिली।


द्वितीयक कृषि किसानों की आय को दुगुना करने का व्यवहारिक विकल्प प्रदान करने के साथ ही कृषि को प्रतिस्पर्धात्मक भी बनाता है। अभी तक पारम्परिक कृषि का कार्यात्मक विस्तार विशेषकर लघु, भूमिहीन एवं अपनी आजीविका के लिए वनों जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित किसानों की आय बढ़ाने का एक संभावित तरीका हो सकता है। अन्य के अलावा, किसान परिवारों के खाली समय का सदुपयोग करना द्वितीयक कृषि के शक्तिशाली तरीकों में से एक है। ग्रामीण गैर कृषि गतिविधियों से जुड़े वैकल्पिक उद्यम द्वितीयक कृषि के दृष्टिकोणों में से एक है, जो प्रतिभागियों के लिए लाभकारी रोजगार और पर्याप्त आय अर्जित करने के लिए उपलब्ध मानव संसाधनों, प्रौद्योगिकियों और दक्षताओं का पर्याप्त रूप से उपयोग करने में मदद देता है।

सेल्फ-रिलायण्ट इनीशियेटिव्स थ्रू ज्वाइण्ट एक्शन ;सृजनद्ध एक अन्तर्राष्ट््रीय स्तर की संस्था है, जो मध्य भारत के बहुत से राज्यों में काम कर रही है। संस्था ने मूल्य संवर्धन के माध्यम से एक बेहतर आजीविका विकल्प को सफलतापूर्वक फैसिलिटेट किया, जिससे न केवल सहरिया जनजातियों को अतिरिक्त आय की प्राप्ति हुई, वरन् मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले में वनों की सुरक्षा करने में भी मदद मिली है। भारत सरकार द्वारा वर्गीकृत सहरिया जनजाति मुख्य रूप से मध्य प्रदेश के मोरैना, शिवपुर, भिण्ड, ग्वालियर, दतिया, शिवपुरी, विदिशा एवं गुना जिले तथा पड़ोसी राज्य राजस्थान के बारां जिले में एक विशेष संवेदनशील आदिवासी समूह के तौर पर पाये जाते हैं। सहरिया समुदाय के लोग पारम्परिक रूप से लकड़हारे और वनोत्पादों को एकत्र करने का काम करने में दक्षता रखते हैं। उनका मुख्य व्यवसाय शिकार करना और वनों से गांेद, कत्था, तेंदू पत्ता, शहद, महुआ के फूल एवं अन्य औषधीय जड़ी-बूटियों को एकत्र कर बेचना है। एक बड़ी संख्या में सहरिया खेतिहर के रूप में भी व्यवस्थित हैं और गेंहूं, बाजरा, मक्का, चना और अरहर उगाते हैं।

शिवपुरी की जंगलों में अत्यधिक सामान्य, परन्तु बहुपयोगी पलाश ;जंगल की आगद्ध के वृक्षों की बहुतायत है। एक अनुमान के अनुसार, औसतन जंगल क्षेत्र में प्रति हेक्टेयर में पलाश के 17 वृक्ष हैं। गंाववासी आय उपार्जन के लिए इस वृक्ष के प्रत्येक भाग जैसे- फूल, पत्तियां, बीज, छाल और गांेद का उपयोग करते हैं। औषधीय उपयोग तथा बाजार मूल्य को देखते हुए पलाश से प्राप्त गोंद एक बहु उपयोगिता वाला उत्पाद है। पलाश से प्राप्त गोंद में कृमिनाशक, ऐंठनरोधी, मधुमेहरोधी, दस्तरोधी, एस्ट््रोजिनरोधी, उर्वरतारोधी, माइक्रोबियलरोधी, तनावरोधी, कीमो निवारक, थायरॉयड कम करने तथा घाव भरने वाले गुण होते हैं। वृक्षों से इस गोंद को एकत्र करने के लिए विशेष दक्षता की आवश्यकता होती है और सहरिया जनजाति के लोगों को इस कौशल में दक्ष माना जाता है।

इस क्षेत्र में वर्षा आधारित खेती होने के कारण खरीफ की कटाई के बाद गांव वालों के पास खेती से सम्बन्धित कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं रह जाता है। ऐसी स्थिति में वे जंगलों में जाकर पलाश के पेड़ों से गोंद व फूल एकत्र करने में अपने समय का उपयोग करते हैं। यद्यपि कि इसमें पूरा परिवार संलग्न रहता है, फिर भी पलाश से गोंद व फूल एकत्र करने का कार्य महिलाओं द्वारा ही प्रमुख रूप से किया जाता है। पलाश से गोंद एकत्र करने हेतु दिसम्बर से फरवरी तक का समय सबसे उपयुक्त समय होता है। गांेद एकत्र करने की पूरी प्रक्रिया हाथों से की जाती है और इसमें बहुत अधिक श्रम लगता है। उपयुक्त वृक्षों की पहचान करने, वृक्ष की छाल को काटने और फिर उसमें से बहते हुए पदार्थ को एकत्र करने में काफी समय और दक्षता की आवश्यकता होती है। दुर्भाग्य से, किसानों को उनकी जंगल आधारित गतिविधियों के बदले पर्याप्त आमदनी न होने के कारण उन्हें रोजगार के लिए निकट स्थित शहरों में पलायन करना पड़ता है।

वह 2019 की सर्दी थी, सृजन को क्षेत्र में किसानों के साथ काम करते हुए अभी छ माह भी नहीं बीते थे, कि संस्था ने पलाश की गोंद की मूल्य श्रृंखला एवं किसानों की आय वृद्धि में इसकी संभावित भूमिका के उपर एक विस्तृत अध्ययन करने का निर्णय लिया। अध्ययन में शिवपुरी जिले में पलाश के गोंद का एक बड़ा उत्पादन और बाजार क्षमता ;40 करोड़ तकद्ध पाया गया। बिचौलियों से पटे पड़े स्थानीय बाजार के अलावा, इन्दौर, नीमच, दिल्ली, जोधपुर एवं वड़ोदरा जैसे शहरों में भी पलाश गोंद के अन्य संभावित बाजार थे। अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला कि स्थानीय बिचौलियों ने आदिवासी किसानों द्वारा निकाले गये गोंद की घटतौली तथा कम मूल्य देकर इनका शोषण किया है। आदिवासियों को स्थापित बाजार चैनलों से जोड़कर उनकी आय में 20-30 प्रतिशत तक की वृद्धि करना संभव था। अध्ययन में यह भी पाया गया कि गोंद निकालने के तरीकों में परिवर्तन करके गोंद के उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।

प्रक्रिया

सृजन ने शिवपुरी जिले के करेरा विकासखण्ड के दो गांवों में मध्य प्रदेश राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत् विकसित की गयी महिला स्वयं सहायता समूहों के साथ जुड़ाव स्थापित किया। स्वयं सहायता समूहों के सहयोग से, गोंद निकालने के काम में संलग्न महिलाओं की पहचान करना बहुत आसान हो गया। प्रत्येक गांव में गोंद निकालने वाली महिलाओं के विभिन्न समूहों को मिलाकर महिला उत्पादक समूह का गठन किया गया। मध्य कृषि-वानिकी शोध संस्थान ;सेण्ट््रल एग्रो-फारेस्ट््री रिसर्च इन्स्टीच्यूटद्ध से वैज्ञानिकों के एक दल ने, गोंद निकालने, सुखाने एवं साफ करने की वैज्ञानिक प्रक्रियाओं पर महिला उत्पादक समूहों के सदस्यों को प्रशिक्षण दिया। अधिक स्थान पर काटें और अधिक गहरा न काटें, काटने से पहले छाल को अच्छी तरह साफ कर लें आदि जैसे विशेषज्ञों के साधारण से सुझावों सेे गोंद के उत्पादन एवं गुणवत्ता में उल्लेखनीय अन्तर आया। इन महिला सदस्यों को लेखा-जोखा रखना, रिकार्ड व्यवस्थित करना, तौल-माप करना एवं मूल्य तय करना आदि विषयों पर भी प्रशिक्षित किया गया। गोंद निकालने की जिम्मेदार एवं स्थाई अभ्यासों से समुदाय को गोंद की मात्रा ;30 प्रतिशत तकद्ध और गुणवत्ता बढ़ाने में काफी मदद मिली।

सम्बन्धित स्वयं सहायता समूह महिला उत्पादक समूहों को निरन्तर संरक्षण देती रहीं और प्रत्येक गांव में ग्राम स्तरीय संग्रहण केन्द्र स्थापित करने हेतु अन्य स्वयं सहायता समूहों से समन्वय स्थापित किया। महिला उत्पादक समूहों ने यह निर्णय किया कि वन क्षेत्र से उत्पादों को एकत्र करने के बाद महिला सदस्य उत्पादों के प्रथम स्तर पर साफ-सफाई एवं सुखाने का काम अपने घर पर ही सुनिश्चित करेंगी। प्राथमिक साफ-सफाई और सुखाने के बाद, सदस्यों ने अपने गांव के ग्राम स्तरीय संग्रहण केन्द्र पर अपने उत्पादों को ले जाकर बेच दिया। प्रथम वर्ष के दौरान, गांव वालों ने 732 किग्रा गोंद की बिक्री की।

ग्राम स्तरीय संग्रहण केन्द्र पर गोंद खरीदने की व्यवस्था स्थापित होने के बाद, नेतृत्व करने की क्षमता रखने वाले कुछ सदस्यों ने अपनी कुल उपज को बेचने की अगुवाई की। उन्होंने गांव, विकासखण्ड और जिला सभी स्तरों पर बिचौलियों को अपने और थोक दुकानदारों के बीच से हटाने का निश्चय किया। व्यापार में मोल-भाव करने के उपर प्रशिक्षण तथा सृजन द्वारा लगातार उत्साहवर्धन करने के कारण, महिला सदस्यों में बहुत आत्मविश्वास था और उन्होंने नये बाजारों की तलाश करना प्रारम्भ कर दिया। सृजन दल के सहयोग से, महिला नेतृत्वों की पहुंच इन्दौर, नीमच, दिल्ली, जोधपुर एवं वडोदरा जैसे शहरों के गोंद बाजारों तक हो सकी, जहां उन्हें अपने उत्पादों का 20 प्रतिशत अधिक मूल्य मिलना सुनिश्चित था। उत्पादन में वृद्धि, उच्च मूल्य और बेहतर संगठन के कारण, महिला उत्पादक समूहों के अस्तित्व में आने के दूसरे वर्ष में गांव वाले 4500 किग्रा0 गोंद की बिक्री कर सके।

महिला उत्पादक समूह अपनी-अपनी बैठकों में सदस्यों से खरीदे जाने वाले गोंद के न्यूनतम मूल्य और गुणवत्ता पर सहमत थे। सदस्यों ने निर्णय लिया कि कुल लाभ का 50 प्रतिशत ग्राम स्तरीय संग्रहण केन्द्र को अपना गोंद बेचने वाली सदस्यों के बीच तुरन्त वितरित कर दिया जाये एवं 50 प्रतिशत समूह की जरूरतों को पूरा करने के लिए रख दिया जाये। यदि सदस्य अपना उत्पाद महिला उत्पादक समूह को न बेचना चाहे अथवा उनके उत्पाद महिला उत्पादक समूह की न्यूनतम गुणवत्ता मानक को पूरा नहीं करते हैं तो वे अपने उत्पादों को खुले बाजार में बेचने अथवा इसे स्थानीय बिचौलियों को बेचने के लिए पूर्ण स्वतन्त्र होती हैं।

 

दयाबती की कहानी

आदिवासी महिला दयाबती अपने पति और दो बच्चों के साथ शिवपुरी जिले के सिमरा गांव में रहती है। उनके पास मात्र आधा एकड़ खेत है, जिस पर वे बहुत कम मात्रा में अनाज उपजा सकती हैं और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए वे जंगलों पर निर्भर करती हैं, दूसरे के खेतों में मजदूरी करती हैं। दयाबती और उनके पति निकट स्थित वन से गोंद एकत्र करते हैं और इसे स्थानीय खरीददारों को रू0 70-80 प्रति किग्रा0 की दर से बेच देती हैं। उनके गांव से सबसे नजदीकी जंगल की दूरी 2 किमी0 है, और उन्हें गोंद निकालने के लिए जंगल में बहुत अन्दर तक जाना पड़ता था। सामान्यतः दयाबती बहुत सुबह उठती थीं, भोजन पकाती थीं और गोंद इकट्ठा करने के लिए जंगल चली जाती थी, जहां से वे शाम को ही वापस आती थीं। औसतन, एक दिन में, वे 3-4 किग्रा0 गोंद इकट्ठा कर लेती थीं।

जब वे सृजन के सम्पर्क मंे आयीं और उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों के बारे में जानीं, तब उन्होंने महिला उत्पादक समूह से जुड़ने का निश्चय किया और आज वे अपने महिला उत्पादक समूह की एक सक्रिय सदस्य हैं। अपनी रूचि और नेतृत्व करने की विशेषता के चलते वे सेण्टर इन्चार्ज के तौर पर चुनी गयीं। उन्हें आय-व्यय का लेखा-जोखा रखने, रिकार्ड प्रबन्धन और इलेक्ट््रानिक तौल मशीन के संचालन एंव भुगतान सम्बन्धी विषयों पर प्रशिक्षित किया गया।

एक सीजन ;दिसम्बर-फरवरीद्ध में उन्होंने रू0 105.00 प्रति किग्रा0 की दर से ग्राम स्तरीय संग्रहण केन्द्र पर 171 किग्रा0 गोंद बेचा और मात्र 3 महीनों में रू0 18,847.00 की आय प्राप्त कर सकीं। चूंकि उन्होंने अपना उत्पाद ग्राम स्तरीय संग्रहण केन्द्र को बेचा था, इसलिए वे स्थानीय खरीददारों को बेचकर की गयी कमाई से रू0 4,275.00 अधिक कमा सकीं। खुश व आत्मविश्वास से भरपूर दयाबती कहती हैं, ‘‘पहले मैं निश्चित नहीं थी कि मैं क्या कर रही हूं और दूसरे क्या कर रहे है। लेकिन अब, महिला उत्पादक समूह से जुड़ाव होने के पश्चात्, मैं यह जान गयी हूं कि उसी वृक्ष से कैसे अधिक से अधिक गोंद निकाला जाये, मुझे अपने उत्पाद का उच्च मूल्य कैसे प्राप्त होगा और बिना पलाश के वृक्ष को कोई नुकसान पहुंचाये मुझे अधिक गोंद कैसे मिल सकता है।’’

 

समुचित सलाह सेवाएं, व्यवहारिक प्रशिक्षण एवं बाजार के साथ जुड़ाव सृजन द्वारा की जाने वाली गतिविधियों के महत्वपूर्ण घटक थे।

प्राप्ति

मात्र दो वर्ष पहले ही शिवपुरी जिले की आदिवासी महिलाआंे ने महिला उत्पादक समूह का गठन करने का निश्चय किया था, परन्तु उसके परिणाम अभूतपूर्व रहे। मात्र दो गांवों से प्रारम्भ हुआ महिला उत्पादक समूह अभियान आज पांच अन्य गांवों में विस्तारित हो चुका है और इसके सदस्यों की संख्या 70 से बढ़कर 300 हो गयी है। औसतन, प्रति सीजन में प्रति व्यक्ति 10 से 20 किग्रा0 अधिक गोंद इकट्ठा करने लगा है। चूंकि कई नई महिलाएं गोंद इकट्ठा करने वाले दल में शामिल हुईं, जिनका प्रारम्भिक योगदान बहुत कम था। तथापि, महिला उत्पादक समूहों के संस्थापक सदस्यों के लिए, औसत योगदान बढ़कर 40 किग्रा0 प्रति सदस्य तक हो गया। ग्राम स्तर पर रहने वाले बिचौलियों को हटाकर बाजार से प्रत्यक्ष जुड़ाव किया गया तथा गोंद की गुणवत्ता बढ़ाई गयी, फलस्वरूप बेहतर मूल्य प्राप्ति (रू0 70-80.00 से बढ़कर रू0 100-120.00 प्रति किग्) हुई, जिससे प्रति व्यक्ति की औसत मौसमी आय जो 1000.00 रू0 से भी कम थी वह बढ़कर रू0 4000.00-4500.00 तक हो गयी।

पलाश गोंद की मूल्य श्रंृखला की दक्षता बढ़ाने पर सृजन के फोकस से बहु आयामी प्रभाव पड़ा। सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव तो यह पड़ा कि पलायन में कमी आयी। कृषि का ऑफ सीजन अधिक उत्पादक एवं पारिश्रमिक देने वाला हो गया, जिससे अधिक से अधिक किसान अपने गांव में ही रहना प्रारम्भ कर दिये। चूंकि गोंद एकत्र करने का मुख्य कार्य महिलाओं के ही जिम्मे होने के कारण सृजन ने उनके पुरूष सहयोगियों के लिए मौसमी सब्ज़िया उगाने पर प्रशिक्षण आयोजित किया। यह प्रशिक्षण जलवायु-स्मार्ट खेती के सिद्धान्तों एवं जैव निवेशों जैसे- बीजामृत, जीवामृ एवं घनजीव अमृत के उपयोग पर केन्द्रित था। जलवायु-स्मार्ट खेती और स्थानीय स्तर पर उपलब्ध जल एवं पारिवारिक श्रम के कारण वे सब्जी की खेती से बेहतर आय प्राप्त कर सके। राधा रानी महिला उत्पादक समूह, रायगढ़ की सदस्य शारदा बाई, जिनके परिवार ने पिछले वर्ष 35 किग्रा0 गोंद बेचा था, का कहना है, ‘‘अपने खेत पर श्रम करना हमेशा अच्छा होता है। अब हम अपने खेत में उगाया हुआ भोजन खाते हैं। विविध प्रकार की सब्ज़ियों की उपलब्धता बढ़ी है और यह हमारे लिए बहुत सस्ता हो गया है।’’

 

तालिका: महिला उत्पादक समूहों का प्रदर्शन

गतिविधियां वर्ष 2019-2020 वर्ष 2020-2021
गांवों की संख्या 02 07
सदस्यों की संख्या 70 300
कार्यक्रम के अन्दर क्षेत्रफल 45 हेक्टेयर 280 हेक्टेयर
एक सीजन में प्रति सदस्य बेची

जाने वाली गांेद की औसत मात्रा

 

10 किग्रा

 

15-20 किग्रा0

प्रति किग्रा0 गोंद के लिए

प्राप्त औसत मूल्य

 

रू0 70-80

 

रू0 100-120

एक सीजन में प्रति सदस्य

द्वारा प्राप्त औसत आय

 

रू0 980

 

रू0 4000-4500

 

सृजन की उपस्थिति और वैज्ञानिकों द्वारा किये जाने वाले वैज्ञानिक हस्तक्षेपों की वजह से पलाश गोंद की उत्पादकता एवं गुणवत्ता तो बढ़ी ही है, साथ ही गांव में कृषिगत अभ्यासों पर भी प्रभाव पड़ा है। किसान अब बीज की गुणवत्ता, विविध प्रकार के फसलों और उन्नत उर्वरता की पद्धतियों के उपर चर्चा करने लगे हैं और वे उन्नत कृषि अभ्यासों के बारे में सीखना चाहते हैं। सृजन के परियोजना प्रबन्धक श्री सन्दीप कहते है, ‘‘इसमें कोई शक नहीं, बदलाव हुआ है और हम उनके कृषिगत अभ्यासों में कुछ सुधार का भी अनुभव कर रहे हैं, भले ही वे देश के सबसे छोटे और गरीब किसान हैं।’’

विभिन्न बाजारों का एक्सपोजर और मूल्य मोल-भाव तथा व्यापारिक चर्चाओं में सहभागिता से स्थानीय महिला नेतृत्व सशक्त हुआ है। उन्होंने व्यापार में लाभ, स्थाईत्व एवं समानता की चर्चा करनी प्रारम्भ कर दी है। यद्यपि अभी भी सशक्त महिला नेतृत्व की संख्या काफी कम है, फिर भी महिला उत्पादक समूह में सक्रिय और अर्थपूर्ण सहभागिता तथा स्वयं सहायता समूहांे की बैठकों ने उनके सामाजिक और आर्थिक स्तर को प्रभावित किया है। गांव सिम्मरा की ग्राम स्तरीय संग्रहण केन्द्र की इन्चार्ज दयाबती आदिवासी का कहना है, ‘‘हमारा महिला उत्पादक समूह नया है और हम व्यापार में नये हैं, लेकिन हम अपने व्यापार को विस्तार देने के लिए एक किसान उत्पादक कम्पनी बनाने की योजना बना रहे हैं।’’ इस सफलता से उत्साहित होकर, सृजन सरकारी सहयोग से इस मॉडल को शिवपुरी जिले के अन्य विकास खण्डों तथा बुन्देलखण्ड क्षेत्र में दुहराना चाहती थी।

निष्कर्ष

यह स्पष्ट है कि यदि लघु किसानों की आय को स्थाई बनाये रखना है तो बाजार का क्षेत्रीय और कार्यात्मक दोनों तरीके से विस्तार करना होगा। द्वितीयक कृषि मुख्यतः कृषि की कार्य क्षमता से सम्बन्धित है और किसान की आय और प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता दोनों को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान देती है। मूल्य श्रृंखला पर ध्यान देने के साथ ही गांव वालों को अपनी आमदनी बढ़ाने में इससे मदद मिली। समुचित सलाह सेवाएं, व्यवहारिक प्रशिक्षण एवं बाजार के साथ जुड़ाव सृजन द्वारा की जाने वाली गतिविधियों के महत्वपूर्ण घटक थे। ग्रामीणों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ और उन्होंने यह अनुभव किया कि अपने अभ्यासों में बदलाव कर वे छोटी जोत में भी बेहतर प्राप्ति कर सकते हैं। यह एक उल्लेखनीय परिणाम था। गरीब समुदायों के बीच मूल्यवर्धन के माध्यम से द्वितीयक कृषि को सुविधाजनक बनाने का सफल प्रयोग यह स्थापित करता है कि यह उत्पादकता और मूल्य प्राप्ति को बढ़ाने में मदद करता है और कृषि के प्रति किसानों के दृष्टिकोण को बदलता है। इसके अतिरिक्त, यह महिला सशक्तिकरण में योगदान देता है और ग्रामीण स्तर की अर्थव्यवस्था में सुधार करता है। आईये हम द्वितीयक कृषि को बढ़ावा दें और कृषि को कृषि भूमि और मौसम से आगे बढ़ने दें।

सन्दर्भ

अनुपमा, बुटिया ;बुटिया मोनोस्पर्माद्ध पलाश वृक्ष: स्वास्थ्य लाभ और औषधीय उपयोग, 2019, बीमबीमा, https://www.bimbima.com/herbs/buteamonosperma/4539 पर उपलब्ध है।

दलवई, ए. द्वितीयक कृषि के प्रमुख महत्व हैं, 10 अगस्तख् 2020, फिनान्शियल एक्सप्रेस, पेज- 8, com/opinion/secondary-agriculture-is-of-primaryimportance/2049891 पर उपलब्ध है।

डे, के. द्वितीयक कृषि: भारतीय कृषि को हस्तान्तरति करने की आवश्यकता है, 20 दिसम्बर, 2019, फिनान्शियल एक्सप्रेस opinion/secondary-agriculture-the-shift-indian-farmingneeds/1807044 पर उपलब्ध है।

नीरज कुमार, मोहम्मद जाहिद, प्रसन्ना खमेरिया


नीरज कुमार
प्रोफेसर, रूरल मैनेजमेण्ट, एक्स आई एम विश्वविद्यालय,
भुवनेश्वर, भारत
ई-मेल: prof.nkumar@gmail.com

मोहम्मद जाहिद
टीम लीडर, सृजन
नई दिल्ली, भारत
ई-मेल: mohdzahid@srijanindia.org

प्रसन्ना खमेरिया
सीईओ, सृजन
नई दिल्ली, भारत
ई-मेल: prasanna@srijanindia.org

Source: Value addition, LEISA India, Vol.23, No.2, June, 2021

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