जैविक ड््रैगन फल उत्पादन

Updated on December 1, 2023

पंजाब के हरबन्त सिंह ने पारम्परिक फसलों के बजाय कम पानी चाहने वाली फसलों ड््रैगन फल एवं चन्दन की जैविक खेती करना प्रारम्भ कर दिया।


पंजाब के थुलेवाल गांव के हरबन्त सिंह ने जब 70 के दशक में खेती का अपना पारिवारिक पेशा अपनाया उस समय जमीन के नीचे 15 फीट पर पानी उपलब्ध था। कई दशकों बाद, जब उनके पुत्र सतनाम ने खेती प्रारम्भ की, उस समय तक भूजल स्तर 150 फीट तक गिर गया था। सिंह परिवार पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा था। पानी खींचने के लिए महंगे मोटर, ट्यूबवेल और रसायनिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग के कारण वे कर्ज के दबाव में आ गये थे। अन्य हजारों किसानों की तरह पिता-पुत्र की इस जोड़ी ने भी व्यास, झेलम, चेनाब, रावी एवं सतलुज पांच नदियों वाले इस भूमि में आने वाले जल संकट को देखा।

इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का समर्थन आंकड़े भी कर रहे है। केन्द्रीय भूजल आयोग द्वारा 2019 में जारी रिपोर्ट के अनुसार पंजाब, जहां आज धान के खेत लहलहाते हैं, अगर इसी तरह बड़े पैमाने पर भूजल दोहन निरन्तर जारी रहा तो अगले 25 वर्षों में रेगिस्तान में बदल जायेगा। इस रिपोर्ट के आने से पहले ही हरबन्त ने अपनी खेती तकनीकों की वजह से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान को भांप लिया था और यहां तक कि उन्होंने किसानों की बिगड़ती स्थितियों का भी अनुमान लगा लिया था। लेकिन वर्ष 2016 तक उनके पास न तो पर्यावरण अनुकूल खेती करने के तरीके थे और न ही संसाधन।

इसी वर्ष, हरबन्त और सतनाम दोनों ने किसानों को जैविक खेती की तरफ अग्रसर होने में सहायता प्रदान करने वाली एक संस्था खेती विरासत मिशन ;केवीएमद्ध द्वारा आयोजित एक कार्यशाला में प्रतिभाग किया। वहां किसानों के साथ उनका सम्पर्क बना, उन्होंने पद्धतियों के बारे में सीखा और रसायनिक उर्वरक मुक्त पर्यावरण अनुकूलन विकल्पों को चिन्हित किया।

केवीएम के संस्थापक सदस्य और कार्यकारी निदेश श्री उमेन्द्र दत्त कहते हैं, ‘‘एक फसली खेती की एकल संस्कृति के कारण मृदा की उर्वरक शक्ति घटती जा रही है, जिससे किसानों द्वारा उत्पादन बढ़ाने के लिए रसायनिक उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग किया जाने लगा है। इससे बदले में, प्राकृतिक वृक्षारोपण चक्र बाधित हुआ है। इसलिए यह सलाह दी जाती है कि जितना अधिक संभव हो मौसमी फसलों व सब्ज़ियों को उगाया जाये, जिससे कीटों का आक्रमण भी रूकेगा।’’

उमेन्द्र आगे रेखांकित करते हुए कहते हैं, कि सभी कीटों को मारना आवश्यक नहीं है, क्योंकि कुछ कीट लाभकारी होते हैं। ये लाभकारी कीट मिट्टी को भुरभुरी बनाते हैं, जो जड़ों की वृद्धि के लिए आवश्यक क्रिया होती है। और अन्ततः किसान को पौधों के प्राकृतिक चक्र को दुहराना होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो, खेत को प्रकृति की नकल करनी चाहिए और बाहरी निवेशों जैसे उर्वरक एवं कीटनाशकों का प्रयोग कम से कम करना चाहिए।

आगे जोड़ते हुए उमेन्द्र कहते हैं,‘‘मृदा तैयारी में सहायता प्राप्त करने हेतु अपने खेत पर गायों और मुर्गियों जैसे जानवरों को रखना चाहिए। इनका मल-मूत्र पोषण युक्त खाद के रूप में कार्य करता है। कृषि अपशिष्टों को नष्ट करने के बजाय उनका उपयोग करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर पत्तियों का उपयोग मल्चिंग के लिए करना। चिड़ियों को अपने खेत में आने के लिए आकर्षित करना चाहिए ताकि वे आकर कीटों का भक्षण करें और आपका फसल नष्ट होने से बच सके। खेती से सम्बन्धित हर समस्या का समाधान प्रकृति में ही छुपा हुआ है। हमें बस इसे देखने की आवश्यकता है।’’ हरबन्त कहते हैं, ‘‘हमारे क्षेत्र में नुकसानदायक कीटनाशकों का उपयोग एवं जल का अत्यधिक दोहन एक नशा की तरह हो गया है। लोग इससे बाहर तो आना चाहते हैं, लेकिन जोखिम उठाना कोई नहीं चाहता है। इससे हमारी जमीनों को जो नुकसान हो रहा है, उससे हम सभी अवगत हैं। इसलिए जब हमें एक किसान समुदाय से अवसर और आश्वासन मिला कि जैविक की तरफ वापस लौटना संभव है, तो हमने इसे लपक लिया।’’

बाक्स 1: खेती की पद्धति
* 7ग्12 फीट के सीमेण्ट पोल को लम्बा खड़ा करने के लिए मिट्टी में 2 फीट गहरा गढ्ढा खोद लें।
* पोल को खोखले सीमेण्ट के छल्ले से बांधें।
* एक पोल से दूसरे पोल के बीच की दूरी 1 फुट रखें ताकि प्रत्येक पोल को सूर्य का प्रकाश मिल सके।
* एक खम्भे पर चार ड््रैगन फल के पौधों की लताओं को चढ़ाया जा सकता है।
* पौधों को पोषण प्रदान करने के लिए खम्भे लगाने के बाद गढ्ढे को मिट्टी और जीवामु्रत ;गाय के गोबर एवं मूत्र का मिश्रणद्ध से भर दें।
* जड़ों को सीधे पानी देने के लिए बूंद सिंचाई तकनीक का उपयोग करनें। हरबन्त कीटों को दूर भगाने के लिए पानी की पाईप में तरल जैविक खाद को मिलाते हैं।

अभ्यास में लाना
कार्यशाला में प्रतिभाग करने के बाद, 60 वर्षीय हरबन्त ने एक बड़े हित के लिए अपने वर्षों के अनुभव एवं ज्ञान को किनारे रखने का निश्चय किया और ड््रैगन फल, नीबू और चन्दन उगाना प्रारम्भ किया।

इन असामान्य पौधों के रोपण का चयन करने के पीछे के कारणों को बताते हुए सतनाम कहते है।, ‘‘हमने 8 एकड़ में से 1.55 एकड़ खेत रसायन मुक्त खेती करने हेतु समर्पित किया है। गेंहूं या चावल जैसी पारम्परिक फसलों की तुलना में ड््रैगन फल और चन्दन दोनों फसलों 90 प्रतिशत तक कम पानी की आवश्यकता होती है। इन फसलों में लागत भी बहुत कम लगती है और देख-रेख न के बराबर करनी पड़ती है लेकिन वे अत्यधिक लाभ देते हैं।’’

कच्छ के ड््रैगन फल विशेषज्ञ हरेश ठाकर सतनाम से सहमत हैं और कहते हैं, ‘‘ड््रैगन फल एक उष्ण कटिबन्धीय पौधा है, जिसमें कैलोरी की मात्रा कम होती है और यह एण्टी ऑक्सीडेण्ट गुणों से भरपूर होता है। इसे उगाने के लिए अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती है और यह सूखा क्षेत्रों में भी पनप सकता है।’’

भले ही ड््रैगन फल में पानी की आवश्यकता और कृषिगत निवेश कम चाहिए होता है, लेकिन यदि ठीक से देख-रेख किया जाये तो ड््रैगन फल की खेती में अभूतपूर्व परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, एक एकड़ ड््रैगन फल की खेती से सिंह परिवार को प्रत्येक वर्ष 400 किग्रा0 ;40 कुन्तलद्ध की उपज प्राप्त होती है और एक किग्रा0 ड््रैगन फल का मूल्य रू0 200.00 होता है। आगे वह कहते हैं, ‘‘हमारे पास ड््रैगन फल के 2500 पौधे हैं, जिससे हमें लगभग रू0 8,00,000.00 प्रति एकड़ सालाना आमदनी होती है। जहां तक चन्दन की बात है, तो यह वृक्ष 15 वर्ष बाद परिणाम देंगे और प्रत्येक वृक्ष से लगभग रू0 3,00,000.00 तक की आमदनी हो सकती है। हमारे पास चन्दन के 200 वृक्ष हैं।’’

ड््रैगन फल उगाने के लिए वियतनाम मॉडल
पिछले दशक में, गुजरात के पानी की कमी वाले कच्छ जिले में जैविक ड््रैगन फल क्रान्ति देखी गयी, जहां 100 से अधिक किसान ड््रैगन फल ;हिलोसेरियस अंडटसद्ध उगा रहे हैं, जो बाहर से गुलाबी व अन्दर से सफेद गूदे के साथ काले बीजों से भरपूर है।

सतनाम कच्छ में रहने वाले अपने मित्र विशाल डोडा से मिलने गये, जो अपने 15 एकड़ खेत में ड््रैगन फल की खेती कर रहे हैं। फल उगाने की वियतनाम पद्धति से प्रभावित होकर, सतनाम ने इसे सीखा और अपनी नर्सरी से 500 पौधे खरीदे।

इस पद्धति को उन्होंने पिता को सिखाया और प्रक्रिया को शुरू करने के लिए सीमेण्ट पोल, सिंचाई सुविधाओं, श्रम लागत एवं बीज आदि में लगभग 4 लाख रू0 निवेश किये। हरबन्त ने 1.25 एकड़ पर 500 पोल लगाया। ‘‘पहले वर्ष, प्रति पोल लगभग 4-5 किग्रा फल प्राप्त होगा, जो पांचवें वर्ष में 20 किग्रा0 प्रति पोल हो जायेगा।’’ उन्होंने दो वर्षों मंे ही लागत निकाल ली।

चन्दन और नीबू के पौधों का रोपण
करण्ट साइन्स जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, एक परजीवी पौधा होने के नाते, चन्दन की जड़ें अन्य मेजबान पौधों से अपना पोषण प्राप्त करती हैं और बदले में अपने मेजबानों को पोषक तत्वों की आपूर्ति करती हैं। इसलिए हरबन्त ने बंगलूर से सन्तालुम एलबम प्रजाति के पौधे खरीदे और आधा एकड़ पर 200 पौधों का रोपण किया। प्रत्येक पौधे के बीच 12 फीट की दूरी रखी गयी और वहां पर नीबू के पौधे लगाये गये।

सतनाम बताते हैं, ‘‘अपने उच्च व्यवसायिक मूल्य के अलावा, चन्दन की खेती से और बहुत से फायदे हैं। पहले पांच वर्षों में इसे उगने और बड़ा होने के लिए मध्यम पानी की आवश्यकता होती है। चन्दन का पेड़ 15 वर्ष में कटाई के लिए तैयार हो जाता है। चार वर्ष के बाद चन्दन की लकड़ी से बीज मिलना प्रारम्भ हो जाता है जो प्रतिकिग्रा0 रू0 1000/- बिकता है। यद्यपि पंजाब में चन्दन के पौध लगाने पर कोई कानूनी बन्दिश नहीं है, फिर भी इसे काटने के समय किसान को सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है।

यह कहानी मूल रूप से https://www.thebetterindia.com/237963/punjab-farmerearns-lakhs-how-to-organic-farming-dragon-fruitsandalwood में प्रकाशित लेख का सम्पादित संस्करण है।


गोपी करेलिया


 

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