जीवाम्रुत: वास्तविक तरल सोना/स्वर्ण

Updated on March 1, 2022

पडेरू महिलाओं ने यह सिद्ध कर दिया है कि कम संसाधनों तक पहुंच होने के बावजूद, कुछ प्रारम्भिक सहयोग और प्रशिक्षण के साथ खेती की कृषि-पारिस्थितिकी पद्वतियों को अपनाना सम्भव है। जैविक खेती का उपयोग खेती के हरित स्वरूप की तरफ एक छोटा सा चरण है, लेकिन विशेष रूप फार्मर प्रोड्यूसर संगठनों के माध्यम से इसे बड़े पैमाने पर बढ़ाने की क्षमता है।


पूरी दुनिया में पिछले कुछ वर्षों से जैविक खेती चर्चा का एक विषय बनी हुई है। बिना रसायनों का उपयोग किये उगाये गये फलों और सब्ज़ियों के बाजार से प्रारम्भ होकर, आज दूध से लेकर अण्डा और कॉफी-चाय अर्थात् भोजन के हर रूप में विस्तारित हो चुका है। विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में जैविक खाद के स्वास्थ्य और पर्यावरणीय लाभों के बारे में उपभोक्ताओं की बढ़ती जागरूकता के साथ, पूरी दुनिया में अब जैविक खाद्यों का बाजार तेजी से बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2020-2025 के बीच यह वृद्धि दर 16.4 अनुमानित है।

जैविक खेती का अनूठा विक्रय बिन्दु खाद्य पदार्थों को पर्यावरणसम्मत बनाने के साथ ही स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभप्रद बनाने के लिए खेती में हमेशा ही रसायनों के बजाय प्राकृतिक उर्वरकों एवं कीटनाशकांे का उपयोग करता है। इसके साथ ही, खेती को स्थाई बनाने के लिए जैव उर्वरकों तथा अन्य सूक्ष्म तत्वों के उपयोग की तरफ भी अत्यधिक ध्यान दिया गया है। हालांकि शहरी क्षेत्रों में अभी भी जैविक खाद्य पदार्थों को खरीदना एक स्टेटस का प्रतीक होने के कारण, जैविक और गैर जैविक खाद्य पदार्थों के मूल्यों में व्यापक अन्तर है। दूसरी तरफ, बेहतर फसल उपज प्राप्त करने के लिए किसानों को महंगे उर्वरकों, कीटनाशकों एवं अन्य दूसरे कृषि निवेशों पर निर्भर होने को मजबूर होना पड़ता है। यहां तक कि जब जैविक खेती की बात आती है, उस समय भी फसलों पर कीटों के नियन्त्रण को रोकने तथा स्वस्थ उत्पाद प्राप्त करने के लिए कुछ निवेशों पर निर्भर रहने की आवश्यकता होती है। तो अब सोचने की बात यह है कि भारत के भौगोलिक रूप से दुर्गम आदिवासी गांवांे में रहने वाले लोग अपने भोजन को जैविक पद्धति से कैसे उगाते हैं।

महामारी के दौरान, आत्मनिर्भर बनकर उभरी पडेरू आदिवासी समुदाय की महिलाएं अपने घर के पिछवाड़े सब्ज़ियां उगाकर न केवल अपने परिवार, वरन् गांव के अन्य लोगों के लिए भी सहायक हो रही हैं।

आंध्र प्रदेश में विशाखापत्तनम शहर से लगभग 100 किमी0 दूर, पहाड़ियों के उपर पडेरू आदिवासियों का एक छोटा गांव मिनिमुलुरू है। शहर से विपरीत, मिनिमुलुरू काफी शान्त और नीरव है। यहां पर परजा आदिवासियों के घर हैं, जो राज्य में निवास करने वाले 33 आदिवासी प्रजातियों में से एक है। यहां सामान्यतः लोगों के पास 1-1.5 एकड़ खेत हैं, जिनमेेें बहुधा पुरूष व महिला दोनों को मेहनत करते देखा जा सकता है। यहां धान, हल्दी और कॉफी प्रमुख फसल है। आदिवासी समुदाय अपने भोजन के साथ-साथ अपनी आजीविका दोनों के लिए प्रकृति पर बहुत ज्यादा निर्भर करते हैं। लेकिन अध्ययन यह प्रदर्शित करते हैं कि आदिवासी समुदायों में विशेषकर महिलाओं को जितना पोषण चाहिए, उससे बहुत कम पोषण वे ले पाती हैं।

पहल
गरीबी उन्मूलन की दिशा में काम कर रहे एक एक गैर सरकारी संगठन टेक्नो-सर्व ने वालमार्ट फाउण्डेशन के वित्तीय सहयोग से पडेरू क्षेत्र में ‘‘आन्ध्र प्रदेश में छोटी जोत के किसानों की स्थाई आजीविका’’नामक कार्यक्रम की शुरूआत की। इस कार्यक्रम का एक लक्ष्य आदिवासी महिलाओं को पोषण युक्त भोजन उपलब्ध कराने के साथ ही क्षेत्र में मृदा उर्वरता भी बढ़ाना था। पद्मश्री पुरस्कार प्राप्त श्री सुभाष पालेकर द्वारा शुरू किये गये शून्य बजट प्राकृतिक खेती मॉडल से प्रेरित होकर, टेक्नोसर्व टीम ने आदिवासी महिला किसानों को अपने घर के पीछे गृहवाटिका प्रारम्भ करने हेतु सहयोग प्रदान करने के उद्देश्य से उन्हें जैविक गृहवाटिका पर प्रशिक्षण देने का निर्णय किया। इससे एक तरफ तो छोटी जोत वाले किसान परिवारों की पोषण सुरक्षा सुनिश्चित होगी, तो वहीं दूसरी तरफ आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की सहभागिता बढ़ने से महिलाएं सशक्त होंगी और उन्हें अतिरिक्त आय उपार्जन में मदद भी मिलेगी।

सितम्बर, 2019 में कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। शुरूआत में परियोजना टीम ने विशाखापत्तम जिले के पडेरू और चिन्तपल्ली क्षेत्रों में 41 गांवों की लगभग 1000 आदिवासी महिलाओं कों को प्रशिक्षण देना, बीज वितरित करना एवं अन्य सहयोग प्रदान किया। बैगन, टमाटर, हरी मिर्च, फ्रेंच बीन, चना, मूली, चौलाई और पालक सहित कुल 8 प्रकार के बीजों का वितरण किया गया।

जीवाम्रुत, तरल जैविक खाद
छोटी जोत वाले खेतिहर परिवारों की कम आमदनी को देखते हुए, पैसों की कमी के कारण उर्वरकों एवं कीटनाशकों तक पहुंच न होना एक बड़ी बाधा थ्ी। इसके प्रत्युत्तर में, टीम ने महिलाओं को एक जैविक तरल खाद जीवामु्रत तैयार करने हेतु प्रशिक्षित करने का निश्चय किया, जिससे पौधों को पोषण मिलने के साथ ही मृदा उर्वरता भी उन्नत हो सके।

समुदायिक सन्दर्भ व्यक्तियों द्वारा सभी महिलाओं को 6 के समूह में बांट दिया गया और टेक्नोसर्व कार्यकर्ताओं ने पूरी प्रशिक्षण प्रक्रिया के दौरान उन्हें सहयोग प्रदान किया। इसके पीछे मुख्य सोच यह सुनिश्चित करना था कि प्रशिक्षण के बाद, उर्वरकों के लिए महिलाओं को बाजार पर न निर्भर रहना पड़े। जैव उर्वरक मुख्य रूप से गाय का गोबर, गौमूत्र, काला गुड़, चना का बेसन, पानी एवं खेत की मेड़ की मिट्टी से तैयार किया गया था। यह सभी सामग्रियां महिलाओं की पहुंच में एवं हर समय आसानी से उपलब्ध हो जाने वाली थीं।

प्रशिक्षण के लिए, टीम ने प्रारम्भिक सहयोग के तौर पर महिलाओं को गुड़ एवं चना का बेसन उपलब्ध कराने का निश्चय किया। प्रत्येक महिला को 200 ग्राम गुड़ और 200 ग्राम चना का बेसन दिया गया, जो 20 लीटर जीवामु्रत तैयार करने के लिए पर्याप्त था। इन सामग्रियों की लागत प्रत्येक व्यक्ति के लिए लगभग 11रू0 आयी।

जीवामु्रत तैयार करने में लगने वाली अन्य सामग्रियां स्थानीय स्तर पर उपलब्ध होने वाली थीं और इसकी स्रोत महिलाएं स्वयं थीं। महिलाओं ने दो अथवा तीन परिवारों को मिलाकर एक उप समूह तैयार किया, जहां पर वे गाय का गोबर, गौमूत्र और मृदा एक साथ एकत्र करती थीं। इससे ये सामग्रियां उन महिलाओं के बीच वितरित करने में आसानी होने लगी, जिनके पास इनकी अनुपलब्धता थी।

  • बाक्स 1: 200 लीटर जीवामु्रत तैयार करने हेतु सामग्री
  • स्थानीय गाय का गोबर      – 10 किग्रा
  • गौमूत्र                             – 10 लीटर
  • गुड़                                 – 2 किग्रा0
  • बेसन                              – 2 किग्रा0
  • खेत की मेड़ की मिट्टी       – 2 किग्रा0
  • पानी                               – 190 लीटर

 

एक बार जब सभी सामग्रियां एकत्रित हो गयीं, तब वास्तविक प्रशिक्षण प्रारम्भ किया गया। यद्यपि जीवाम्रुत को सीमेण्ट के टैंक अथवा मिट्टी के बर्तन में बनाया जा सकता था, लेकिन अधिकांश महिलाओं ने इसे प्लास्टिक के ड््रम में बनाने को वरीयता दी, जो अधिक आसान एवं अत्यधिक व्यवहारिक था। सामुदायिक सन्दर्भ व्यक्तियों एवं टीम के निर्देशन में, महिलाओं ने ड््रम में सामग्रियों को मिलाना प्रारम्भ कर दिया।

20 लीटर जैव उर्वरक तैयार करने के लिए महिलाओं ने सबसे पहले उसी अनुपात में पानी मिलाया। इसके बाद गाय का गोबर और गौमूत्र को डालकर अच्छी तरह मिलाया। इसके बाद, अन्य सामग्रियों जैसे- गुड़, बेसन एवं खेत के मेड़ की मिट्टी को डालकर उसे एक लकड़ी से अच्छी तरह मिला लिया। इसके बाद ड््रम को जूट बैग से ढंक कर प्रतिभागियों ने इस मिश्रण को सड़न हेतु एक छायादार स्थान पर रख दिया।

तैयार जीवाम्रुत को मिट्टी में पौधों की जड़ों में सीधे प्रयोग किया जा सकता है। इसके साथ ही इसे एक लीटर जीवाम्रुत में 10 लीटर पानी मिलाकर फसलों पर छिड़काव भी कर सकते हैं।

प्रभाव

तैयार जैव उर्वरक को प्रतिभागी महिलाओं के बीच वितरित किया गया। यद्यपि महिलाओं ने सिर्फ एक ही सीजन में इस जीवाम्रुत का उपयोग किया था, लेकिन परिणाम बेहद सकारात्मक रहे। प्रशिक्षण में प्रतिभाग करने वाली आदिवासी महिलाओं में से एक मंगम्मा ने कहा, ‘‘हम पहले भी अपने घर के पिछवाड़े सब्ज़ियां उगाते थे, लेकिन वे इतनी ताज़ी एवं स्वस्थ नहीं दिखती थीं। मैंने सामुदायिक सन्दर्भ व्यक्ति लक्ष्मी के निर्देशन में जीवामु्रत का उपयोग किया और इससे उन कीटों का पूरी तरह सफाया हो गया, जो हमारी फसलों को प्रभावित करते थे।’’

ओकेजी कार्यक्रर्म को देख रहे टेक्नोसर्व के एक कार्यकर्ता विशाल के अनुसार, महिलाओं ने जब एक बार इसकी जैविक प्रकृति को समझना प्रारम्भ कर लिया तब वे इसके उपयोग हेतु उत्सुक हो उठी थीं। विशाल का कहना है, ‘‘पहले, बहुत से किसानों की यह शिकायत रहती थी कि उन्हें अपनी फसलों के लिए उर्वरक और कीटनाशक नहीं मिल पा रही है। जब हमने उनके साथ जीवामु्रत तैयार करने हेतु प्रशिक्षण देने की अपनी योजना के बारे में बताया, तो पहले वे इसके प्रभावों के बारे में सशंकित थीं। लेकिन जब उन्होंने प्रशिक्षण में सहभागिता निभाई और अपनी फसलों पर इस मिश्रण का उपयोग करना प्रारम्भ कर दिया, तब उन्हें महसूस हुआ कि कुछ जैविक बनाने में आसान, विशेषकर सस्ता होने के साथ प्रभावी भी हो सकते हैं।’’

कोविड-19 के दौरान प्रभाव
वर्तमान महामारी ने इस पहल पर एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया है। कोविड-19 और पूरे देश में लगाये गये लॉकडाउन के फलस्वरूप तुरन्त दिखाई देने की तुलना में अधिक परिणाम हुए। थोक कृषि मण्डियों के बन्द हो जाने से पडेरू आदिवासियों की न केवल आजीविका का नुकसान हुआ, वरन् आपूर्ति श्रृंखला के बाधित हो जाने और आवागमन पर रोक लगने के कारण उन्हें सब्जी जैसी मूलभूत आवश्यकता की वस्तुओं से भी वंचित होना पड़ रहा था। तब गृहवाटिका और आसानी से उपलब्ध होने वाले जैव उर्वरकों का महत्व स्पष्ट हो गया। ऐसे समय में जब गांव वालों को मूलभूत वस्तुओं जैसे- सब्जी आदि खरीदने में बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था, उस समय पडेरू की आदिवासी महिलाएं आत्मनिर्भर बन कर उभरीं। उन्होंने न केवल अपने परिवार की सहायता की, वरन् अपने घर के पिछवाड़े सब्ज़ियां उगाकर अन्य गांव वालों की भी सहायता की। मंगम्मा कहती हैं, ‘‘मैं सामान्यतः एक बार में आवश्यकता से अधिक सब्ज़ियां तोड़ती हूं ताकि मैं गांव में इसे अन्य लोगों को बांट सकूं। लॉकडाउन के दौरान, प्रतिबन्धों के चलते तथा गांव से बाजार की दूरी अधिक होने के कारण, हमज ब तक वहां पहुंचते, तब तक वहां भी बहुत कुछ बेचने के लिए नहीं रह जाता था।’’ उसके बाद से मंगम्मा की जैविक गृहवाटिका को देखकर बहुत सी महिलाएं अपनी स्वयं की गृहवाटिका बनाने के लिए उत्साहित हुई हैं। ‘‘लोग देखते हैं कि मेरी सब्ज़ियां किस प्रकार बढ़ रही हैं और स्वस्थ हैं और मैं उनसे कह सकती हूं कि यह सब जीवाम्रुत के कारण हो रहा है। जब लॉकडाउन के दौरान हम कृषिगत निवेश नहीं खरीद पा रहे थे, जीवाम्रुत न केवल आसानी से उपलब्ध होने वाला विकल्प था, वरन् यह उर्वरक एवं कीटनाशक के रूप में बेहद प्रभावी भी था।’’

आगे रास्ते और हैं
पूरे कार्यक्रम के दौरान, 32 आदिवासी गांवों से कुल 708 आदिवासी महिला किसानों को जीवाम्रुत बनाने पर प्रशिक्षित किया गया। जैव उर्वरक का उपयोग करने वाली लगभग सभी महिलाओं ने अपनी उपज में सकारात्मक परिणाम दिखने की बात की। अभ्यास से टीम को यह पता चला कि कुछ प्रारम्भिक सहयोग और प्रशिक्षण के साथ, कम संसाधन वाले लोगों के बीच भी खेती के कृषि पारिस्थितिकी तरीकों को विकसित किया जा सकता है। हालांकि, जीवाम्रुत को तैयार करना खेती के हरित स्वरूप की दिशा में एक छोटा सा कदम हो सकता है, लेकिन इसे विशेषकर फार्मर प्रोड्यूसर संगठनों के माध्यम से अधिकाधिक किसानों तक विस्तारित करने की भरपूर संभावना है, साथ ही अत्यधिक संसाधनों तक किसानों की पहुंच को भी सुनिश्चित किया जा सकता है।

सामुदायिक सन्दर्भ व्यक्तियों का महिला किसानों के साथ नियमित सम्पर्क व जुड़ाव भी इस पहल की सफलता का एक मुख्य कारण था। चूंकि सामुदायिक सन्दर्भ व्यक्ति उसी समुदाय से होते थे अथवा आस-पास के गांवों से ही आते थे, इसलिए वे एक अधिक स्थाई और समुदाय आधारित मॉडल का नेतृत्व करने में सहायक होते थे। जब टेक्नोसर्व कार्यकर्ता पहल को फैसिलिटेट कर रहे थे, तब सामुदायिक सन्दर्भ व्यक्तियों की ही यह जिम्मेदारी थी कि वे महिला किसानों द्वारा अभ्यासों को प्रभावी ढंग से अपनाना सुनिश्चित करें। और एक प्रमुख सीख यह भी मिली कि- विशेषकर कम जनशक्ति होने वाले केसों में जमीनी स्तर पर पहलों/हस्तक्षेपों की अगुवाई करने वाले लोगों की पहचान करना है।

पडेरू के क्षेत्र में जैव उर्वरक बनाने एवं प्रयोग करने की सफलता के साथ, अब टेक्नोसर्व इस मॉडल को न केवल इस कार्यक्रम के अन्तर्गत अन्य क्षेत्रों में दुहराने की योजना बना रहा है, वरन् पूरे देश में कई कार्यक्रमों मंे इसका क्रियान्वयन किया जा रहा है।

सन्दर्भ
लक्ष्मैया ए, आन्ध्र प्रदेश के खम्मन जिले के आईटीडीए परियोजना क्षेत्रों में आदिवासी जनसंख्या का पोषण एवं आहार स्थिति, 2007,जर्नल ऑफ ह्यूमन इकोलॉजी

मार्डर इन्टेलीजेन्स, आर्गेनिक फूड एण्ड बीवरेज मार्केज-ग्रोथ, ट््रेण्ड्स एण्ड फोरकास्ट्स ;2020-2025द्ध 2020

टेक्नो सर्व


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मुम्बई, महाराष्ट््र - 400 013

Source: Bio-input for agroecology, LEISA India, Vol.23, No.1, march, 2021

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