एकीकृत मछली खेती: एक त्रि-सामग्री दृष्टिकोण

Updated on June 1, 2020

उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में, पानी की प्रचुर मात्रा होने के कारण समुदाय ने कृषि के पूरक के तौर पर एक वैकल्पिक आजीविका पायी है। मुर्गी पालन और सब्जी की खेती के साथ मछली पालन को एकीकृत करते हुए गांव वालों ने बेहतर लाभ कमाया है। एकीकृत मछली पालन के इस मॉडल से आय के अतिरिक्त परिवार के सदस्यों का पोषण स्तर बढ़ाने में भी मदद मिली है।


उत्तराखण्ड, प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर एक राज्य है। यहां की अधिसंख्य आबादी की आजीविका का प्रमुख आधार खेती है। राज्य के मैदानी भाग में प्रचुर मात्रा में खेती होती है और पर्याप्त अनाज का उत्पादन होता है। फिर भी राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में छोटे-छोटे भूखण्ड होने, मृदा की खराब गुणवत्ता एवं सिंचाई सुविधा का अभाव होने के कारण यहां पर खेती करना चुनौतीपूर्ण है। मौसम की अनिश्चितता के अतिरिक्त जंगली जानवरों जैसे बन्दर व पहाड़ी भालूओं द्वारा फसल को नुकसान पहुंचाये जाने के कारण उपज बहुत बुरी तरह प्रभावित होती है। ये सभी विषम परिस्थितियां किसानों को खेती करने के प्रति हतोत्साहित करती हैं।

यहां पर भूमि का विस्तार करने के उपर सोचना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में खेती की मौजूदा प्रणाली में उंचाई में विस्तार करने की संभावना को तलाशा गया। ताजे जल से समृद्ध इस क्षेत्र में जलीय खेती और एकीकृत मछली पालन की विशाल संभावना है। जल संसाधनों का बेहतर उपयोग करते हुए खेती को लाभप्रद बनाने, ग्रामीण समुदाय के लिए आय और रोजगार सृजन करते हुए उनके लिए पोषण सुरक्षा उपलब्ध कराने के उद्देश्यों के साथ जी0बी0 पन्त नेशनल इन्स्टीच्यूट ऑफ हिमालयन एन्वायरन्मेण्ट एण्ड सस्टेनेबुल डेवलपमेण्ट ;जीबीपीएनआईएचईएसडीद्ध, कोसी-कतरमाल, अल्मोड़ा ने एकीकृत मछली खेती को प्रोत्साहित करना प्रारम्भ किया। वर्ष 2004-07 के दौरान सहभागी पद्धति अपनाते हुए पशुपालन, मुर्गी पालन और सब्जी की खेती के साथ मछली पालन की एकीकृत खेती का प्रदर्शन अल्मोड़ा जिले के बसोली और मनान क्षेत्रों में किसानों के खेतों में किया गया।

आजीविका सुरक्षा के लिए तकनीक केन्द्रित मॉडल का विकास

इस क्षेत्र के किसान पारम्परिक रूप से कृषि और सम्बन्धित गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। अधिकांशतः किसान अनाज के बाद मोटा अनाज, मोटा अनाज के बाद फिर अनाज की प्रक्रिया दुहराते हुए दो वर्ष में तीन फसलें लेते हैं। वे एक निश्चित चक्रीकरण के आधार फसलों जैसे- गेंहूं, जौ, धान, रागी, सांवा, सोयाबीन, कुल्थी एवं कुछ सब्ज़ियों को उगाते हैं। छोटे किसानों के लिए दुग्ध व्यवसाय एवं सब्जी उत्पादन संभावित आजीविका के विकल्प हैं। हालांकि उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में मछली पालन एक सामान्य अभ्यास नहीं है, फिर भी कुछ किसानों के अपने खेत में जलस्रोत होते हैं।

गांव की वर्तमान स्थिति को जानने के लिए वर्ष 2004-05 में गांव में सहभागी ग्रामीण आकलन ;पीआरएद्ध किया गया। पीआरए अभ्यास में गांव के बुजुर्ग, महिलाओं एवं ग्राम पंचायत के सदस्यों ने भाग लिया। पीआरए के दौरान ही निकल कर आया कि बहुत से किसानों अपनी परम्परागत खेती प्रणाली के साथ-साथ एकीकृत मछली खेती के प्रति रूचि प्रदर्शित की। सामान्य सामुदायिक समझौता के साथ-साथ उपलब्ध संसाधनों और उपलब्ध संसाधनों, किसानों की आवश्यकता तथा अपनी रूचि के आधार पर स्वेच्छा आगे आना किसानों के चयन का प्रमुख आधार था। सभी चयनित किसानों के पास उनके अपने खेत के पास जलस्रोत था।

प्रारम्भ में, उनके गांव में और जीबीपीएनआईएचईएसडी के ग्रामीण तकनीकी केन्द्र पर जागरूकता एवं दक्षता आधारित प्रशिक्षण कार्यक्रमों एवं प्रदर्शनों का आयोजन किया गया। भाषण, दृश्य-श्रव्य माध्यम एवं प्रक्षेत्र भ्रमण के माध्यम से उन्हें एकीकृत मछली पालन के विभिन्न पहलुओं पर प्रशिक्षण दिया गया। विकास के सभी चरणों में शामिल किसानों में से कुल 9 किसानों के प्रक्षेत्र पर एकीकृत मछली खेती का मॉडल स्थापित किया गया।

अल्मोड़ा जनपद के बसोली और मनान गांव में मछली तालाब और उसके बांध पर मुर्गी/बत्तख का घर बनाया गया। विभिन्न पारिस्थितिकी क्षेत्रों में रह सकने वाली और पूरक भोजन की आदतों वाली मछलियों का पालन किया गया ताकि तालाब में उपलब्ध प्राकृतिक भोजन का बेहतर उपयोग किया जा सके। मार्च के प्रथम सप्ताह में विदेशी मछली प्रजातियों की 5.5-10 सेमी0 लम्बे मछली के बीजों जैसे- सिल्वर कार्प ;45 प्रतिशतद्ध, ग्रास कार्प ;35 प्रतिशतद्ध और कॉमन कार्प ;20 प्रतिशतद्ध को तालाब में डाला गया। उस समय तालाब के पानी का तापमान 16 डिग्री सेल्सियस से कम था। तालाब के क्षेत्रफल के अनुसार प्रति वर्गमीटर में तीन मछलियां थीं। उत्पादन लागत को कम करने और मछली उत्पादन के लिए भोजन एवं खाद की उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु बसोली में तालाब के उपर मुर्गी पालन किया गया। इसमें हाइब्रिड कुरियोलेर प्रजाति की 3000 चूजे प्रति हेक्टेयर की दर का पालन प्रारम्भ किया गया। इसी प्रकार मछलियों के विकास, उपज और आर्थिक उतार-चढ़ाव की तुलना के लिए, अधिक अण्डे देने वाली खाकी कैम्पबेल प्रजाति की बत्तखों का पालन 300 बत्तख प्रति हेक्टेयर की दर से किया गया। प्रथम वर्ष के दौरान मनान में एक नर एवं 5 मादा बत्तखों का पालन प्रारम्भ किया गया। प्रथम वर्ष में बत्तख के साथ मछली पालन की एकीकृत खेती में कम लाभ होने के कारण दूसरे वर्ष में मनान में भी बत्तख के स्थान पर मुर्गी पालन किया गया।

दोनों प्रक्षेत्रों पर मछली पालन के साथ सब्ज़ियों की खेती को एकीकृत किया गया। पहले किसान, अनाज एवं मोटे अनाज की खेती प्रमुखता से करते हुए खेती एवं सहायक गतिविधियों में संलग्न थे। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर कुछ सब्ज़ियां जैसे- लतावर्गीय सब्ज़ियों, फ्रेंचबीन, भिण्डी, टमाटर आदि पारम्परिक रूप से खरीफ ऋतु में उगायी जाती थीं। अब क्षेत्र के लिए उपयुक्त विभिन्न प्रकार की सब्ज़ियों की उन्नत प्रजातियों की खेती को 600 वर्गमी0 में प्रोत्साहित किया गया। किसानों को सब्ज़ियों की खेती की तकनीकी जानकारी भी दी गयी थी।

परिणाम
मनान में मछली और बत्तख की एकीकृत खेती से 4621 किग्रा0/हेक्टेयर/प्रतिवर्ष की उपज हुई और 264 वर्गमीटर के तालाब मंे पाली गयी बत्तखों से 900 अण्डे और 14 किग्रा0 मांस की प्राप्ति हुई। इसके अलावा, पहाड़ों में बत्तख के अण्डे और मांस की मांग बहुत कम है।

मनान में मुर्गियों के साथ मछली की एकीकृत खेती करने से मछलियों की उपज बढ़ गयी। तालिका 1 में दी गयी सूचना के अनुसार 4269 से 4825 किग्रा0 मछली/हेक्टेयर/प्रतिवर्ष की दर से उपज प्राप्त हुई और 120 से 130 किग्रा0 मुर्गियां तथा 4200-4400 अण्डे प्राप्त हुए। जबकि बसोली में में 5650 से 6030 किग्रा0/हेक्टेयर/वर्ष की दर से मछलियों की उपज प्राप्त हुई और 55 से 65 किग्रा0 मुर्गियां एवं 2500-3000 अण्डों का उत्पादन किया गया। मछली की यह उपज भारत और अन्य कई एशियाई देशों में मछली-बत्तख/मुर्गी पालन के एकीकरण से प्राप्त उपज के बराबर दर्ज की गयी है। अभी भी प्रारम्भिक चरण में विकास के लिए सघन पूरक आहार देकर और मुर्गियों के एकीकरण से प्राप्त खाद को पुनर्चक्रीकरण कर और भी अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है।

कुरियोलेर मुर्गियांे ने 18 सप्ताह बाद अण्डे देना प्रारम्भ कर दिया, जबकि बत्तखों ने 22 सप्ताह के बाद अण्डे देना प्रारम्भ किया। इसके अलावा तालाब के बांध तथा आस-पास के ऐसे स्थान जहां पर तालाब के पानी से सिंचाई हो सकती थी, उन सभी स्थानों पर सब्ज़ियों की खेती की गयी। इस प्रकार सब्ज़ियों की खेती से बसोली में लगभग 1200-1400 तथा मनान में 1900-2300 किग्रा0 विभिन्न प्रकार की सब्ज़ियां उत्पादित की गयीं। सब्जी उत्पादन बढ़ने से किसानों को उच्च पारिश्रमिक मिला तथा उन्हें अतिरिक्त आमदनी और रोजगार के विकल्पों के पर्याप्त अवसर प्राप्त हुएं। एकीकृत मछली पालन करने से बसोली में रू0 8109.00 की लागत के बदले औसतन रू0 21,829.00 तथा मनान में रू0 11925.00 की लागत के सापेक्ष रू0 36,823.00 का लाभ प्राप्त हुआ। पर्याप्त आय के अलावा, एकीकृत मछली पालन करने वाले किसान के परिवार के लोगों को शुद्ध सब्ज़िया तथा गुणवत्तापूर्ण पशु प्रोटीन प्राप्त हुआ, जिससे विशेषकर बच्चों एवं महिलाओं में कुपोषण के दर में कमी हुई।

परिणामों से यह स्पष्ट होता है कि मछली-मुर्गी पालन की एकीकृत खेती पहाड़ी क्षेत्रांे के लिए कार्यात्मक एवं आर्थिक दोनों दृष्टिकोण से संभव है। यद्यपि मछली पालन साथ एकीकृत रूप में मुर्गी पालन की तुलना में बत्तख पालन कम लाभप्रद होता है। इसके साथ ही स्थानीय बाजारों में बत्तख के अण्डों की कम मांग होने के कारण भी इसे अलाभकारी पाया गया।

इस पद्धति को अपनाने में किसानों को कुछ कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर, पहाड़ों पर मछली के बीजों की अनुपलब्धता होने से उन्हें अधिक दूर से जाकर मछली के बीजों को लाना पड़ता है। इन सुदूर क्षेत्रों से तराई क्षेत्रों की दूरी 150-200 किमी है। यह एक खर्चीला और मुश्किल कार्य है। इस समस्या के समाधान हेतु किसान राज्य मत्स्य पालन विभाग, अन्य सरकारी संस्थाओं और ग्रामीण विकास के लिए कार्यरत स्वैच्छिक संगठनों से सम्पर्क साधना प्रारम्भ कर दिये हैं।

निष्कर्ष
एकीकृत मछली खेती का मॉडल छोटे किसानों के लिए एक पूरक खेती गतिविधि है और उनके लिए रोजगार व आय उपार्जन करती है, जिससे समाज में उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में बेहतरी आती है। पहाड़ों में इस तकनीक के स्थानान्तरण में प्रदर्शन और किसानों को आवश्यक प्रशिक्षण, ये दो महत्वपूर्ण चरण होते हैं। इस मॉडल की सफलता को देखते हुए विभिन्न कार्यक्रमों के अन्तर्गत 9 अलग-अलग गांवों में इस का प्रदर्शन किया गया, जिससे अन्य गांवों के किसान इसे अपनाने हेतु प्रोत्साहित हो सके। राज्य सरकार भी इस तरह की गतिविधियों को बढ़ावा दे रही है।

आभार
इस लेख को लिखने हेतु लेखक को उत्साहित करने एवं आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराने हेतु जी.बी. पन्त नेशनल इन्स्ट्ीच्यूट ऑफ हिमालयन एन्वायरन्मेण्ट एण्ड सस्टेनेबल डेवलपमेण्ट, कोसी-कतरमाल, अल्मोड़ा, भारत के निदेशक का धन्यवाद। वित्तीय सहयोग के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली का बहुत-बहुत आभार।

दीपा बिष्ट एवं आर सी सुन्द्रियाल


दीपा बिष्ट
वैज्ञानिक- विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग
ई-मेल: deepabisht1234@rediffmail.com

आर सी सुन्द्रियाल
वैज्ञानिक - जी एवं प्रमुख
सामाजिक-आर्थिक विकास केन्द्र
जी.बी. पन्त नेशनल इन्स्ट्ीच्यूट ऑफ हिमालयन एन्वायरन्मेण्ट एण्ड सस्टेनेबल डेवलपमेण्ट
कोसी-कतरमाल, अल्मोड़ा - 263 643 उत्तराखण्ड, भारत
ई-मेल: sundriyalrc@yahoo.com

Source: Sustainable Agriculture, LEISA India, Vol.21, No.1, March 2019

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