पहले से आपदा प्रवण राज्यों की श्रेणी में आने वाले राज्य पूर्वी उत्तर प्रदेष एवं बिहार में जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़, जल-जमाव एवं सूखा जैसी आपदाओं में तीव्रता आयी है। इनसे निपटने हेतु एकल फसल के स्थान पर अन्तः फसली तकनीक अपनाकर किसानों की खेती को लाभप्रद बनाया जा सकता है। गोरखपुर एन्वायरन्मेण्टल एक्षन ग्रुप एवं विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के तकनीकी सहयोग से पष्चिमी चम्पारण के बैकुण्ठवा के किसान गोपाल जी एवं इन जैसे और भी बहुत से किसानों ने खेती में अन्तःफसली तकनीक को अपनाकर न सिर्फ खेती को लाभप्रद बनाया है, वरन् आजीविका के सतत् विकास का विकल्प भी अपनाया है।
मुख्य रूप से बाढ़ एवं जल – जमाव जैसी आपदाओं से ग्रसित पूर्वी उत्तर प्रदेष और पष्चिमी बिहार में लगातार एवं भारी बारिष, एक बारिष से दूसरी बारिष के बीच लम्बे अन्तराल आदि को जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों के रूप में देखा जा सकता है। यद्यपि इन क्षेत्रों में बारहमासी नदियों एवं औसतन अच्छी बारिष होने के कारण यहां की मृदा काफी उर्वर है। फिर भी लघु एवं सीमान्त किसान इनका लाभ नहीं ले पाते, क्योंकि अधिकांषतः खेती योग्य भूमि निचली होने के कारण प्रायः खरीफ की फसल डूब जाती है और अधिकांषतः रबी की बुवाई देर से होने के कारण पर्याप्त उपज नहीं मिल पाती है। विगत कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन ने यहां की स्थिति को और भी नाजुक बनाया है। जिस कारण किसान फसल नुकसान, खाद्यान्न संकट, गरीबी एवं ऋण के दुष्चक्र में फंसता चला जा रहा है।
इसी पष्चिमी बिहार के बाढ़ग्रस्त क्षेत्र पष्चिमी चम्पारण जिला के नौतन प्रखण्ड का बैकुण्ठवा गांव प्रखण्ड का बाढ़ग्रस्त एवं जल-जमाव से प्रभावित गांव है। गांव से सटे पष्चिमी सिरे से लगभग 100 मी0 की दूरी से होकर भागड़ (छोटी नदी) बहती है तो दूसरी तरफ पूरब दिषा से गांव एक बड़े जलाषय से घिरा हुआ है, जो कुल मिलाकर बरसात के दिनों में गांव में बाढ़ एवं जल-जमाव की स्थिति उत्पन्न करते हैं। बाढ़ एवं जल-जमाव की स्थिति से लोगों की खेती बड़े पैमाने पर प्रभावित होती है। इसके साथ ही हाल के दिनों में दो बारिषों के बीच लम्बे अन्तराल ने खेती को सूखा आपदा से भी प्रभावित किया है। अनुसूचित जाति बहुल इस गांव में लोगों की आजीविका का मुख्य स्रोत खेती है और एकल खेती यहां की परम्परा के तौर पर है। इस प्रकार कहा जाये तो खरीफ के दिनों में धान एवं रबी में विषेषकर गेंहूं व लम्बी अवधि की फसलों में गन्ना यहां की मुख्य फसलें हैं। मौसम में आये बदलाव का असर इन फसलों पर पड़ने के कारण किसान को खेती में नुकसान उठाना पड़ता है। उसकी खेती की लागत भी डूब जाती है, जिससे उसे अगली फसल में भी नुकसान उठाना पड़ता है। यहां यह भी बताना आवष्यक होगा कि इस गांव में छोटी जोत वाले लघु-सीमान्त किसानों की बड़ी संख्या है और धान, गेंहूं व गन्ना की एकल खेती में लागत की अपेक्षा उत्पादन नहीं मिलता है। दूसरी तरफ गन्ना एक तो लम्बी अवधि की फसल है, दूसरी तरफ चीनी मिलों द्वारा इसका भुगतान समय से नहीं किया जाता। किसानों को इसके भुगतान के लिए कभी-कभी तो कई वर्षों तक इन्तजार करना पड़ जाता है। ऐसी स्थिति में नगदी फसल करने की तरफ किसानों को उत्प्रेरित किया गया और इसी दृष्टि से अधिक उपज एवं अधिक आय देने वाले संयोजन सूरन-पपीता साथ में कद्दू की खेती को प्रोत्साहित करने की दिषा में कार्य किया गया।
सूरन, कद्दू और पपीता ही क्यों ?
- सूरन एवं पपीता दोनों ही लम्बी अवधि की अर्थात 7- 8 माह की फसल है। जबकि कद्दू 2 माह में ही फल देने लगता है, जिससे किसान का तीसरे महीने से ही बाजार से जुड़ाव बना रहता है।
- सूरन जमीन के नीचे की फसल है, जबकि कद्दू एवं पपीता दोनों जमीन के उपर की फसल होने के कारण पौधों को पर्याप्त पोषण मिलता है।
- सूरन के पौधों में अन्य फसलों की अपेक्षा कीट-व्याधि लगभग 90 प्रतिषत कम लगता है। इसलिए कीट नियंत्रण पर लगने वाली लागत कम हो जाती है।
- सूरन व कद्दू दोनों फसलें जल-जमाव की स्थिति को सह सकती हैं। अर्थात 10 दिनों तक भी खेत में पानी लग जाये तो भी इनकी उपज पर असर नहीं पड़ता है।
- सूरन की भण्डारण क्षमता अधिक होती है और इसे घर पर भण्डारित किया जा सकता है। इसलिए किसान इसे बाजार भाव अच्छा मिलने पर बिक्री करता है।
- स्थानीय स्तर पर इसकी मांग अधिक होती है और स्थानीय स्तर पर इसकी खेती करने वाले किसानों की संख्या कम होती है।
- अन्य सब्ज़ियों की अपेक्षा इसकी उपज क्षमता अधिक होती है।
- सूरन उच्च पोषण वाला, औषधीय गुणों से भरपूर एवं उच्च लाभ देने वाला होता है। इसी प्रकार पपीता भी औषधीय गुणों से भरपूर तथा बेहतर बाजार भाव देने वाला होता है। इसलिए छोटे मझोले किसानों द्वारा इसकी खेती अधिक पसन्द की जाती है।
परियोजना पहल
कुछ ऐसी ही परिस्थितियों में गोरखपुर एन्वायरन्मेण्टल एक्षन ग्रुप ने वर्ष 2018 में भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के सीड डिवीजन के साथ मिलकर कोर सपोर्ट परियोजना के तहत् गोरखपुर ; (उत्तर प्रदेष)द्ध एवं पष्चिमी चम्पारण ;बिहारद्ध के कुल 18 गांवों में काम करना प्रारम्भ किया, जिसके तहत् एक गांव बैकुण्ठवा भी शामिल है।
किसान के पारम्परिक ज्ञान और विज्ञान का सम्मिश्रण करते हुए स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों के आधार पर किसानों की तकनीकी समस्याओं का समाधान करने वाली इस परियोजना के अन्तर्गत संस्था ने जब इस गांव में किसानों के साथ बैठक एवं किसान विद्यालयों का संचालन शुरू किया तब 50 वर्षीय किसान गोपाल जी का जुड़ाव संस्था से हुआ और उन्हों ने परियोजना से जुड़े कार्यों में गहरी रूचि दिखाई। किसान विद्यालयों, प्रक्षेत्र भ्रमणों, विभिन्न तकनीकी सत्रांे पर प्रषिक्षण के दौरान गोपाल जी ने अपनी कृषि सम्बन्धी समस्याओं के उपर चर्चा की और आय तथा आजीविका के स्थाईत्व का समाधान मांगा। विषय विषेषज्ञों के साथ विचार-विमर्ष कर अन्तः फसली खेती तकनीक पर किसान विद्यालय में चर्चा की गयी और गोपाल जी ने ओल ;सूरनद्ध, कद्दू एवं पपीता की अन्तः खेती करने का निष्चय किया। इन तीनों फसलों के चयन के पीछे जल-जमाव की परिस्थितियां, सूर्य की रोषनी, मृदा की उर्वरता एवं किसान की आय में वृद्धि, परिवार की पोषण सुरक्षा एवं बेहतर मूल्य प्राप्त करने हेत उत्पादों का लम्बे समय तक भण्डारण आदि विषयों पर विचार करना प्रमुख चरण रहा।
नवाचार प्रक्रिया:
अन्तः खेती तकनीक के अन्तर्गत सूरन, कद्दू एवं पपीता की खेती के लिए सबसे पहले उन्होंने ऐसे खेत का चयन किया, जहां पर पानी का निकास आसानी से हो जाता हो। तत्पष्चात् उन्होंने पपीता एवं कद्दू की नर्सरी तैयार की। सूरन, पपीता और कद्दू की रोपाई में 10-10 दिन का अन्तर रखा गया। सबसे पहले इन्होंने अपने खेत में लाइन से लाइन तथा पौध से पौध की दूरी 7 फीट रखकर पपीते की नर्सरी लगाई जबकि सामान्यतः दो लाइनों के बीच 5-6 फीट की दूरी रखी जाती है। ऐसा इसलिए किया गया कि दो लाइनों के बीच सूरन के पौधों को विकास करने के लिए पर्याप्त स्थान प्राप्त हो। इसके 10 दिनांे के बाद पपीते की दो लाइनों के बीच सूरन की रोपाई की।
सूरन की एक कन्द से दूसरी कन्द के बीच 3 फीट की दूरी रखी गयी। बीच की खाली भूमि पर 10 दिनों के बाद कद्दू की रोपाई की गयी।
सूरन – पपीता – कद्दू की खेती में गोपाल जी द्वारा किये गये नवाचार को निम्न बिन्दुओं के रूप में देख सकते हैं –
- पपीते की दो लाइनों के बीच मानक से ज्यादा स्थान रखा।
- अभी तक पपीते के साथ छोटी अवधि की फसल जैसे – धनिया, मूली, साग इत्यादि की फसल ली जाती थी, परन्तु इस बार इन्होंने लम्बी अवधि वाली सूरन की फसल लेने का निर्णय किया और उसी प्रकार खेती की, क्योंकि सूरन की फसल छायादार स्थान पर आसानी से ली जा सकती है।
- अपने खेत में पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद- वर्मी कम्पोस्ट एवं सड़ी हुई गोबर की खाद का इस्तेमाल किया।
- पहली बार कन्द, बीज एवं नर्सरी को ट््राइकोडर्मा के घोल से शोधित किया, जिससे फसलों को बीज एवं मृदा जनित रोगों से बचाया जा सके।
- सामान्यतः पपीते व सूरन की खेती अप्रैल माह में की जाती है, परन्तु इन्होंने फरवरी प्रारम्भ में ही इसकी खेती की।
इनके द्वारा 0.5 एकड़ में की गयी इस अन्तः खेती में लागत-उपज-लाभ विष्लेषण को निम्न तालि के माध्यम से देखा जा सकता है –
तालिका सं0 1: 0.5 एकड़ में पपीता – सूरन – कद्दू की अन्तः फसली खेती का लागत – लाभ विष्लेषण
विवरण/सामग्री | मात्रा | दर (रू0में) | लागत (रू0में) | उपज | बिक्री दर | लाभ |
पपीता के पौध | 600 | 13.50 / पौध | 8100.00 | 7 कुन्तल | 1000.00 | 7,000.00 |
सूरन का कन्द | 3 कु0 | 4000.00/कु0 | 12000.00 | 50 कुन्तल | 1500.00 | 75,000.00 |
कद्दू का बीज | 100 ग्राम | 250.00/किग्रा | 25.00 | 13.50कु0 | 1075.00 | 14,512.50 |
खेत की जुताई | 4 बार | 300.00/बार | 1200.00 | |||
वर्मी कम्पोस्ट | 5 कु0 | घर का | 2500.00 | |||
सड़ी हुई गोबर की खाद | 12कु0 | घर का | 2000.00 | |||
ट््राइकोडर्मा | 2 किग्रा | 250.00/किग्रा | 500.00 | |||
सिंचाई | 4 बार | 300.00/बार | 1200.00 | |||
कुल योग | 27,525.00 | 96,512.00 | ||||
– | 27,525.00 | |||||
शुद्ध लाभ | 68,987.00 |
उपरोक्त तालिका के आधार पर कहा जा सकता है कि पपीता-सूरन-कद्दू की अन्तः खेती करने में सिर्फ तीनों फसलों के बीज के दाम अलग-अलग लगे हैं, जबकि अन्य सभी खर्च/लागत एक ही है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि एक ही खर्च में किसान तीन फसलों की उपज प्राप्त कर रहा है। तालिका के आधार पर लागत रू0 27,525.00 के सापेक्ष बिक्री रू0 96,512.00 की हुई है। शुद्ध लाभ की बात करें तो इन्होंने अपने आधा एकड़ खेत से एक वर्ष में रू0 68,987.00 का शुद्ध लाभ प्राप्त किया। इस प्रकार लागत एवं शुद्ध लाभ में 1ः2.50 का अनुपात है, जो एकल फसल गन्ना, गेंहूं एवं धान से प्राप्त लाभ से अधिक
है।
गन्ना, गेंहूं व धान की एकल फसल के सापेक्ष पपीता-सूरन-कद्दू के संयोजन की अन्तः खेती के लाभ को निम्न तुलनात्मक तालिका के माध्यम से समझा जा सकता है –
तालिका सं0 2: 0.5 एकड़ फसल में एकल फसल (गन्ना, गेंहूं व धान) तथा अन्तः फसली खेती (पपीता – सूरन – कद्दू) का तुलनात्मक विवरण
एकल फसल | लागत | लाभ | शुद्ध लाभ | लागत-लाभ अनुपात |
गन्ना | 12,300 | 24,500 | 12,200 | 1:1.99 |
गेंहूं | 7,000 | 11,250 | 4,250 | 1:1.60 |
धान | 7,500 | 10,500 | 3,000 | 1:1.4 |
पपीता – सूरन – कद्दू की अन्तः खेती |
27,525 | 96,512 | 68,987 | 1:3.50 |
उपरोक्त तालिका के आधार पर कहा जा सकता है कि किसान को गन्ना से एक वर्ष में होने वाली आय रू0 12,200.00 है, धान व गेंहूं से एक वर्ष में रू0 7250.00 की आय होती है जबकि पपीता-सूरन व कद्दू की अन्तःफसली खेती कर गोपाल जी ने एक वर्ष में 68,987.00 की आय प्राप्त की।
निष्कर्ष
गोपाल जी का कहना है – ‘‘हम पहले भी अन्तः खेती करते थे, परन्तु उसमें लागत के सापेक्ष लाभ कम होता था, परन्तु इस बार फसलों के इस संयोजन में जमीन के नीचे सूरन, सतह पर कद्दू व खेत के उपर पपीता का फल प्राप्त कर, जमीन के एक ही टुकड़े से एक ही समय में एक से अधिक उपज प्राप्त कर हमने अपनी आय बढ़ाई। इसके साथ ही हमारा बाजार से निरन्तर जुड़ाव भी बना रहा।’’ छायादार स्थान में भी हो सकने वाली फसल सूरन का बाजार भाव भी अच्छा मिलने के कारण हमारी आय में दुगुने की वृद्धि हुई है। इनका यह भी कहना है कि छोटी जोत के किसानों के लिए अन्तःफसली खेती आय का बेहतर माध्यम है, क्योंकि एकल फसली खेती के बजाय अन्तः फसली खेती से ही आय को दुगुना किया जा सकता है।
वर्तमान में गांव एवं गांव के आस-पास के अन्य किसान इस तरह की अन्तः फसली खेती तकनीक को अपना कर लाभान्वित हो रहे हैं और अपनी आय में वृद्धि कर अपनी आजीविका को स्थाई बनाने की ओर अग्रसर हो रहे हैं
अर्चना श्रीवास्तव, अजय सिंह एवं राम सूरत
अर्चना श्रीवास्तव प्रोग्राम प्रोफेशनल (सामाजिक सहायता एवं टी.) अजय सिंह प्रोग्राम प्रोफेशनल (पोस्ट हार्वेस्ट टेक्नोलॉजी) राम सूरत क्षेत्र अधिकारी डी.स.टी., कोर सपोर्ट परियोजना गोरखपुर एन्वायरन्मेण्टल एक्षन ग्रुप